परीक्षाएं आने वाली थीं| अब कोई भी गर्ल्स होस्टल इसलिए नहीं जाता था कि अभी लड़कियों ने पढ़ाई की वजह से बाहर निकलना बंद कर दिया था| परीक्षाएं कोई बच्चों का खेल नहीं थीं, इनके लिए अचानक सारे आवश्यक कार्यों को स्थगित करके, युद्ध स्तर पर तैयारी करनी पड़ती थी| सबसे पहले तो 'डेट शीट' की जानकारी और इसका अध्ययन कि किस पेपर के लिए कितना गैप मिल रहा है, के अलावे ये पता करना होता था कि इस आपदा प्रबन्धन के लिए किन किन हथियारों की आवश्यकता होगी| जैसे पुस्तकों को खरीदने या लाईब्रेरी से उड़ाने और नोट्स का जुगाड़ करने के साथ-साथ एक 'पढ़ाकू टाइप स्टुडेंट' को तैयार करना होता था| जिस प्रकार इनकम टैक्स देने की इच्छा हो या न हो, परन्तु देना पड़ता है, वैसे ही इन पढ़ाकुओं को भी ऐन मौके पर अनुमानित प्रश्नों की जानकारी देने के साथ, एक बार उनके उत्तर भी समझाना पड़ता था| इन पढ़ाकुओं को हम 'के० के० झा' (इसका विस्तार अश्लील होने की वजह से इसे पाठकों के समझदारी के लिए छोड़ दिया गया है) कहते थे| इनमें और बाकी के स्टुडेंट्स में यही फर्क होता था कि ये लोग पूरा साल इसलिए दुखी रहते थे ताकि रिजल्ट के दिन खुश हो सकें हालाँकि उस दिन भी ये लोग 'संतोषम परमम् सुखम' का मर्म नहीं जानने की वजह से खुश नहीं ही हो पाते थे| जबकि बाकी के स्टुडेंट्स पूरे साल ऐश करते थे और रिजल्ट के दिन, वो भी इन पढ़ाकुओं के वजह से ही, दुखी हो लेते थे| इन पढ़ाकुओं और आम स्टुडेंट्स के अंकों में इतना अंतर होता था कि रिजल्ट वाले दिन मुंह लटकाना ही पड़ता था| मेरे बैचमेट 'फत्ता थापा' का नेपाल से यहाँ आकर टॉप करना तो ऐसा लगता था, जैसे घर में घुस कर कोई गाली दे रहा हो| इस वजह से बैच के कुछ विद्यार्थियों ने इसे पडोसी देश का षड्यंत्र मानते हुए, नेपाल पर भारत द्वारा लगाये गए आर्थिक प्रतिबन्ध का पुरजोर समर्थन किया था| फिर भी चूँकि 'भगवान राम' का विवाह नेपाल में हुआ था इस लिहाज से पूरे नेपाल को भारत का ससुराल मानते हुए ज्यादातर लोगों को थापा रूपी 'कन्या पक्ष' से परीक्षा के दौरान सहायता रुपी दहेज़ लेने में कोई एतराज नहीं था|
विद्यार्थियों का एक तीसरा प्रकार भी था जो रिजल्ट के दिन "माँ फलेषु कदाचन" के सिद्धांत पर "सुखं दुखम समे कृत्वा" वाले रास्ते पर चलता था| इस ग्रुप को 'ओटा' (ओ० टी० ए० अर्थात ओल्ड टाइगर्स एसोसिएशन) के नाम से जाना जाता था| इन लोगों के लिए बी० टेक० के चार साल की पढ़ाई, आठ दस साल में 'महमूद ग़जनी के 17 आक्रमणों' से प्रेरित हो कर पूरी होती थी| वैसे इनके शादी-व्याह और संतानप्राप्ति जैसे आत्मा-शुद्धि के कई संस्कार पढ़ाई के दौरान ही हो जाते थे| इनके पास एक स्वर्णिम इतिहास तो होता था, लेकिन कोई भविष्य नहीं होता था| ये सभी के लिए आदरणीय तो होते थे परन्तु अनुकरणीय कत्तई नहीं होते थे| ये आम तौर पर शांत रहते थे, परन्तु इनके सामने से 'कूली' फिल्म का कोई भी गाना या संवाद अगर किसी ने सुना दिया फिर ये उसका स्वागत ऐसी गालियों से करते थे कि उन्हें सुनकर "बहिरो सुने, मूक पुनि बोले" चरितार्थ होने लगता था| इन्हें 'कूली' फिल्म से नहीं बल्कि उसी फिल्म के एक गाने, "लोग आते हैं लोग जाते हैं, हम वहीँ पे खड़े रह जाते हैं" से एलर्जी थी|
परीक्षा पास करने के लिए भी प्रमुख रूप से तीन विधियाँ थीं, पहली टॉपर्स वाली अर्थात सिर्फ पढ़ कर पास करने वाली, दूसरी 'ओटा' वाली अर्थात सिर्फ नक़ल कर के पास करने वाली और तीसरी मध्यमार्गी विधि यानी पढ़ाई और नक़ल के सामंजस्य से पास करने वाली| हर विधि के अपने कायदे कानून एवं लाभ हानि थे, फिर भी ये विधियाँ एक दुसरे से किसी न किसी तार से जुड़ी रहती थीं| टॉपर्स विधि से परीक्षा पास करने वाले लोगों को बाकी के दो विधियों में प्रयोग किया जाता था| इन्हें टॉप करने का तात्कालिक फायदा ये था कि जिस प्रकार से जापान की बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका की है, उसी प्रकार इस विधि के अनुयायियों को बाकी के लोग संरक्षण देते थे, लेकिन दीर्घकालिक नुकसान ये था कि ये पढ़ाई के अलावे और किसी काम के नहीं रह जाते थे| 'ओटा' वाली विधि अर्थात सिर्फ नक़ल के बल पर पास करने वाले ओल्ड टाइगर्स एसोसिएशन और कुछ ऐसे लोगों के लिए आरक्षित थी, जो लोग नक़ल कर के तो पास कर भी सकते थे परन्तु अगर पढ़ दें तो इन्हें नक़ल कराके भी पास नहीं कराया जा सकता था| मध्यमार्गी विधि उन विद्यार्थियों के लिए ज्यादा उपयुक्त थी जिन्हें 'अमूल्य मनुष्य योनि' की कीमत मालूम थी, वे इसे पढाई जैसे तुच्छ कार्यों में व्यर्थ नहीं गंवाना चाहते थे| ये पढाई के स्थान पर अन्य कामों, जैसे किसी 'एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी' में संलिप्तता, गर्ल्स होस्टल में नियमित हाजिरी, बिस्टूपुर (जमशेदपुर विमेंस कॉलेज) दर्शन, सरायकेला कोर्ट में हाजिरी देना इत्यादि, को प्राथमिकता देते थे| मध्यमार्गी विधि में पहले टॉपर्स की सहायता से एक बार विषय को पढ़ कर फिर उसका पर्ची बनाना होता था, फिर उस पर्ची को अति सूक्ष्म लिखावट में ध्यान से लिख कर छोटी पर्ची बनानी पड़ती थी| इस प्रक्रिया में उस पर्ची के अन्दर की लिखीं बातें याद हो जाती थीं फिर भी आत्मविश्वास बनाये रखने के लिए ज्यादातर लोग उसे परीक्षा भवन तक ले जाते थे| इस मध्यमार्गी विधि का सबसे बड़ा फायदा ये था कि बिना जरूरी कार्यों से समझौता किये, कम पढ़ कर भी अच्छे नम्बर आ जाते थे और नुकसान ये था कि इस विधि से कभी टॉप नहीं किया जा सकता था, हालाँकि इसे एकाध 'मित्तल' जैसे लोगों ने लोगों ने मिथक साबित कर दिया था| कुछ लोगों ने समयाभाव के कारण इस विधि को थोड़ा संशोधित कर के अपनाया था, संशोधन ये था कि जब सूक्ष्म लिखावट वाली पर्ची बनानी होती थी, तो इसे दुबारा लिखने के बजाय 20% या 30% साइज़ में बिस्टूपुर जाकर जापानी जेरोक्स मशीन की सहायता से जेरोक्स करा कर देश में उच्च शिक्षा के प्रचार प्रसार में जापान को भी अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी बनाया जाता था|
विद्यार्थियों का एक तीसरा प्रकार भी था जो रिजल्ट के दिन "माँ फलेषु कदाचन" के सिद्धांत पर "सुखं दुखम समे कृत्वा" वाले रास्ते पर चलता था| इस ग्रुप को 'ओटा' (ओ० टी० ए० अर्थात ओल्ड टाइगर्स एसोसिएशन) के नाम से जाना जाता था| इन लोगों के लिए बी० टेक० के चार साल की पढ़ाई, आठ दस साल में 'महमूद ग़जनी के 17 आक्रमणों' से प्रेरित हो कर पूरी होती थी| वैसे इनके शादी-व्याह और संतानप्राप्ति जैसे आत्मा-शुद्धि के कई संस्कार पढ़ाई के दौरान ही हो जाते थे| इनके पास एक स्वर्णिम इतिहास तो होता था, लेकिन कोई भविष्य नहीं होता था| ये सभी के लिए आदरणीय तो होते थे परन्तु अनुकरणीय कत्तई नहीं होते थे| ये आम तौर पर शांत रहते थे, परन्तु इनके सामने से 'कूली' फिल्म का कोई भी गाना या संवाद अगर किसी ने सुना दिया फिर ये उसका स्वागत ऐसी गालियों से करते थे कि उन्हें सुनकर "बहिरो सुने, मूक पुनि बोले" चरितार्थ होने लगता था| इन्हें 'कूली' फिल्म से नहीं बल्कि उसी फिल्म के एक गाने, "लोग आते हैं लोग जाते हैं, हम वहीँ पे खड़े रह जाते हैं" से एलर्जी थी|
परीक्षा पास करने के लिए भी प्रमुख रूप से तीन विधियाँ थीं, पहली टॉपर्स वाली अर्थात सिर्फ पढ़ कर पास करने वाली, दूसरी 'ओटा' वाली अर्थात सिर्फ नक़ल कर के पास करने वाली और तीसरी मध्यमार्गी विधि यानी पढ़ाई और नक़ल के सामंजस्य से पास करने वाली| हर विधि के अपने कायदे कानून एवं लाभ हानि थे, फिर भी ये विधियाँ एक दुसरे से किसी न किसी तार से जुड़ी रहती थीं| टॉपर्स विधि से परीक्षा पास करने वाले लोगों को बाकी के दो विधियों में प्रयोग किया जाता था| इन्हें टॉप करने का तात्कालिक फायदा ये था कि जिस प्रकार से जापान की बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका की है, उसी प्रकार इस विधि के अनुयायियों को बाकी के लोग संरक्षण देते थे, लेकिन दीर्घकालिक नुकसान ये था कि ये पढ़ाई के अलावे और किसी काम के नहीं रह जाते थे| 'ओटा' वाली विधि अर्थात सिर्फ नक़ल के बल पर पास करने वाले ओल्ड टाइगर्स एसोसिएशन और कुछ ऐसे लोगों के लिए आरक्षित थी, जो लोग नक़ल कर के तो पास कर भी सकते थे परन्तु अगर पढ़ दें तो इन्हें नक़ल कराके भी पास नहीं कराया जा सकता था| मध्यमार्गी विधि उन विद्यार्थियों के लिए ज्यादा उपयुक्त थी जिन्हें 'अमूल्य मनुष्य योनि' की कीमत मालूम थी, वे इसे पढाई जैसे तुच्छ कार्यों में व्यर्थ नहीं गंवाना चाहते थे| ये पढाई के स्थान पर अन्य कामों, जैसे किसी 'एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी' में संलिप्तता, गर्ल्स होस्टल में नियमित हाजिरी, बिस्टूपुर (जमशेदपुर विमेंस कॉलेज) दर्शन, सरायकेला कोर्ट में हाजिरी देना इत्यादि, को प्राथमिकता देते थे| मध्यमार्गी विधि में पहले टॉपर्स की सहायता से एक बार विषय को पढ़ कर फिर उसका पर्ची बनाना होता था, फिर उस पर्ची को अति सूक्ष्म लिखावट में ध्यान से लिख कर छोटी पर्ची बनानी पड़ती थी| इस प्रक्रिया में उस पर्ची के अन्दर की लिखीं बातें याद हो जाती थीं फिर भी आत्मविश्वास बनाये रखने के लिए ज्यादातर लोग उसे परीक्षा भवन तक ले जाते थे| इस मध्यमार्गी विधि का सबसे बड़ा फायदा ये था कि बिना जरूरी कार्यों से समझौता किये, कम पढ़ कर भी अच्छे नम्बर आ जाते थे और नुकसान ये था कि इस विधि से कभी टॉप नहीं किया जा सकता था, हालाँकि इसे एकाध 'मित्तल' जैसे लोगों ने लोगों ने मिथक साबित कर दिया था| कुछ लोगों ने समयाभाव के कारण इस विधि को थोड़ा संशोधित कर के अपनाया था, संशोधन ये था कि जब सूक्ष्म लिखावट वाली पर्ची बनानी होती थी, तो इसे दुबारा लिखने के बजाय 20% या 30% साइज़ में बिस्टूपुर जाकर जापानी जेरोक्स मशीन की सहायता से जेरोक्स करा कर देश में उच्च शिक्षा के प्रचार प्रसार में जापान को भी अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी बनाया जाता था|
अगले पेपर के लिए आवश्यक सामग्री का इंतजाम करके मैं अपनी बाइक से बिस्टूपुर से रात को लौटते वक़्त ए. डी. बिल्डिंग पर अपने दोस्त शैलेन्द्र, अरुण, बाबा, अनुराग इत्यादि को हमारे एक टीचर ओ० एन० सिंह सर, जो कि स्टुडेंट और टीचर के बीच की कड़ी थे, (जैसे वायरस सजीव और निर्जीव के बीच का कड़ी होता है) के साथ हा हा ही ही करते देख कर रुक गया| शैलेन्द्र पान खाकर मुंह फुलाये मुझे बार बार घूर रहा था और मैं नजरें बचा रहा था| शैलेन्द्र पान सिर्फ इस लिए खाता था कि वो हम लोगों के ग्रुप में 'मिसफिट' नहीं महसूस करे| इसी बीच ओ० एन० सिंह सर ने मुझ से अर्थशास्त्रियों वाले अंदाज में पूछा,
"तुम्हारी बाइक कितना एवरेज देती है?"
मेरे कुछ बोलने के पहले ही शैलेन्द्र ने बजर दबाया और सर उठाकर, जैसे किसी सेटेलाईट से अपलिंक कर रहा हो, पान के बीच से जगह बनाते हुए जवाब दिया,
"12 कि० मि० प्रति लीटर और मेरी भी करीब करीब उतना ही एवरेज देती है|"
"12 कि० मि० प्रति लीटर और मेरी भी करीब करीब उतना ही एवरेज देती है|"
ओ० एन० सिंह सर ने दंग होने का अभिनय करते हुए पुछा,
"तुम्हारी वाली क्यों?"
"तुम्हारी वाली क्यों?"
अब सभी शैलेन्द्र का मुंह, निश्चित रूप से उसका कोई नया शगूफा सुनने के लिए, देखने लगे|
शैलेन्द्र ने पान का एक पीक इस अफ़सोस के साथ थूकते हुए कि काश वो इसे मेरे ऊपर थूक पाता, जवाब दिया, "वैसे तो मेरी बाइक एक लीटर में 30 कि० मि० चलती है, लेकिन मैं जो भी पेट्रोल डलवाता हूँ, आधा से ज्यादा ये निकाल लेता है तो मुझे तो 12 कि० मि० प्रति लीटर ही पड़ा ना?"
दरअसल आज सुबह मैंने शैलेन्द्र की बाइक से पेट्रोल चुराया था और किसी ने मुझे 'पेट्रोल दोहन' करते वक़्त ना सिर्फ देख लिया था बल्कि जाकर शैलेन्द्र को बता भी दिया था| मैंने जमशेदपुर विमेंस कॉलेज की अपनी एक काल्पनिक गर्लफ्रेंड से मिलने का बहाना बना कर पेट्रोल-दोहन को न्यायसंगत ठहराते हुए शैलेन्द्र से अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी| ये एक ऐसा बहाना था जिस पर किसी भी अपराध को क्षमा किया जा सकता था| शैलेन्द्र ने गुस्सा को पान की शक्ल में थूकते हुए खुद के ही चेहरे पर क्षमा भाव लाते हुए बोला,
"अरे रे! ये बात पहले भी बता सकते थे, दूसरा आकर बताये तो अच्छा नहीं लगता|"
अब उसके चेहरे पर एक ऐसा संतोष झलक रहा था जैसे उसका पेट्रोल किसी पुण्यकार्य में लगाया गया हो| उसे खुद के पेट्रोल रूपी दूध से रुद्राभिषेक होता हुआ दीख रहा था| मुझे अब एहसास हो गया था कि इस बहाने से तो आवश्यकता पड़ने पर भविष्य में इसकी बाइक भी मांगी जा सकती है| मैंने अपनी उदारता दिखने के लिए एक बहुत ही मौलिक बात बताई,
"फिर भी गलती तो गलती है|"
अब उसके चेहरे पर एक ऐसा संतोष झलक रहा था जैसे उसका पेट्रोल किसी पुण्यकार्य में लगाया गया हो| उसे खुद के पेट्रोल रूपी दूध से रुद्राभिषेक होता हुआ दीख रहा था| मुझे अब एहसास हो गया था कि इस बहाने से तो आवश्यकता पड़ने पर भविष्य में इसकी बाइक भी मांगी जा सकती है| मैंने अपनी उदारता दिखने के लिए एक बहुत ही मौलिक बात बताई,
"फिर भी गलती तो गलती है|"
आज परीक्षा भवन दर्शनीय था| कुछ लोग ताज़ी दही तो कुछ दक्षिण भारतीय लोग खट्टे दही और अक्षत का तिलक लगाकर, और कुछ लोग तो हनुमान मंदिर से लाल टीका ऐसे लगा कर आये थे जैसे 'खून का बदला' नाटक में भाग लेने आये हों| मैथेमेटिकल पेपर था| सभी डरे हुए थे क्योंकि इसमें स्थानीय कहावत के अनुसार 'भर हाथ चूड़ी या झट से बेवा' होना था| मैंने तो हॉल में घुसते ही एक स्टुडेंट को, सिर्फ खौफ पैदा करने के लिए गाली और परीक्षा भवन से बाहर निकलने पर उसके हाथ पैर तोड़ने की धमकी देकर अप्रत्यक्ष रूप से इन्विजीलेटर्स को बता दिया कि वे अकारण मेरे पास नहीं आयें| प्रश्नपत्र मिलने से पहले ही मैं पेन्सिल से कॉपी के पीछे कुछ उपयोगी बातें लिख चुका था| प्रश्न पत्र मिलने के बाद टॉपर्स अपने काम में लग गए| मध्यमार्गी लोग अपने हथियारों, जैसे कलम, पेंसिल, कैलकुलेटर के अलावे याद कर के रात को ध्यान से बनाया गया पर्ची लेकर जम चुके थे| ये पर्चियां जिसकी होती थी उसी के काम आती थी, क्योंकि ये प्रायः कोड वर्ड में लिखी जाती थी, जैसे "देखो वो रहा एलिफैंट" के पहले अक्षर क्रमशः डेंसिटी, वेलोसिटी, रेडिअस और ईटा के द्योतक थे| इन पर्चियों की भाषा इतनी सरल होती थी कि पकड़े जाने पर बड़े आसानी से इन्विजीलेटर्स पर पुर्वाग्रहित होने का आरोप लगाया जा सकता था| मध्यमार्गी लोग लिखते लिखते कभी कभी सर ऊपर उठाकर कुछ याद करने का अभिनय करते हुए, लड़कियों को ताड़ने के साथ साथ इन्विजीलेटर्स को ही इनविजिलेट करते थे| इस नियम को हम लोग 'आई स्क्वायर लॉ' अर्थात 'इनविजिलेट द इन्विजीलेटर्स लॉ' के नाम से जानते थे|
सबसे ज्यादा निश्चिन्त 'ओटा' पद्धति वाले थे, इनकी स्थिति 'केंद्र से मिले सहायता राशि पर चलने वाले राज्यों' जैसी थी| इनके लिए सारा सेटिंग हो चुका था, बाहर पूरी की पूरी एक टीम लगी थी| पेपर मिलते ही पहले उसके प्रश्नों को कई पर्चियों में लिखकर खिड़की से पूर्वनिर्धारित स्थानों पर फेंक दिया गया, और उसे उठाकर जूनियर्स जिन्हें हम वालंटियर कहते थे 'सी हॉस्टल' या 'डाउन होस्टल' की ओर प्री-स्टार्टेड बाइक्स से हल कराने ले गए| प्रश्नों को सॉल्व कराने के लिए कुछ ऐसे सीनियर्स जो टिस्को या टेल्को में कार्यरत हों, उन्हें बुलाया जाता था| इन प्रश्नों को कार्बन लगा कर कई कापियों में तैयार किया गया, अब प्रश्नों के हल को 'येन केन प्रकारेण' परीक्षार्थियों तक पहुँचाना बाकी था| इसके लिए दो विकल्प थे, टू-डाईमेंसनल और थ्री-डाईमेंसनल| टू-डाईमेंसनल तरीके में तैयार पर्ची को एक माचिस के डिब्बे में डाल कर किसी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी या एम० टेक० स्टुडेंट से परीक्षार्थी तक भेजा जाता था| आज ये तरीका इस लिए काम नहीं आ सकता था कि ऐसे टीचर्स का इनविजीलेशन ड्यूटी था जो बात बात पर स्टुडेंट्स को एक्सपेल कर देने के लिए कुख्यात थे| कोशिश तो हुई थी इनका 'इनविजीलेशन ड्यूटी' बदलवा कर दुसरे ब्रांच में डलवाने की, लेकिन दुसरे ब्रांच वालों ने इंचार्ज को बहका कर सबके मंसूबों पर पानी फेर दिया| अब केवल थ्री-डाईमेंसनल तरीका अपनाने का ही विकल्प बच गया था| इन दोनों तरीकों में एक बात कॉमन थी, वो ये कि पर्ची हमेशा माचिस में डाल कर भेजी जाती थी| थ्री-डाईमेंसनल तरीके में टीम-वर्क की जरूरत होती थी| इसमें कमसे कम चार वालंटियर की आवश्यकता होती थी| दो वालंटियर तो निगरानी के लिए होते थे, एक वालंटियर छत पर जा कर धागे के सहारे पर्ची भरे माचिस के डब्बे को धीरे धीरे नीचे करता था और एक और वालंटियर सामने की बिल्डिंग के छत से खिड़की की स्थिति के अनुसार धागे को दायें या बाएं करने के लिए इशारा करता था| इस बीच इनविजिलेटर के 'स्थान और संवेग' के बारे में बताने के लिए परीक्षार्थी स्वयं ही इशारे करता था| अगर स्थिति अनुकूल हो तो खिड़की से बाहर हाथ कर के महाभारत के अर्जुन की तरह हवा में से मनचाहा तीर (अर्थात पर्ची) हस्तगत कर लिया जाता था|
अब थ्री-डाईमेंसनल तरीके से माचिस का डब्बा तो अन्दर आ चुका था इसका प्रयोग होना भी बिना समय गंवाए शुरू हो गया| 'ओटा' ग्रुप के एक सीनियर जो पिछले एक घंटे से कलम का त्याग कर के बैठे हुए थे, अचानक गौतम बुद्ध की तरह इनके ज्ञान चक्षु खुल गए और ये बेलगाम होकर लिखने लगे और अपनी 'स्पीड लिमिट' क्रास करने की वजह से पकडे गए| इनके यहाँ से जो पुडिया बरामद हुई वो एक कार्बन कॉपी थी| इनकी उत्तर पुस्तिका ले ली गयी और तहकीकात हो रही थी कि ये पर्ची आई कहाँ से और इसकी पाण्डुलिपि (ओरिजिनल कॉपी) कहाँ है? पकडे गए स्टुडेंट काफी सीनियर और अनुभवी थे, इन्हें यहाँ के 'पीनल कोड' के बारे में टीचर्स से ज्यादा जानकारी थी, इन्हें ये भी पता था कि ये अपराध 'रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर' श्रेणी में नहीं आता, अतः फांसी नहीं होगी| ये हिम्मत न हारते हुए घडियाली आंसू टपकाते रहे, फिर "ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं" की दुहाई दी, जब कोई फायदा नहीं हुआ तो एकाध कसमें भी खाए कि भविष्य में वो ऐसा कभी नहीं करेंगे| टीचर्स बाकी बातों पर विश्वास कर भी सकते थे, परन्तु इनके भूत को ध्यान में रखते हुए 'भविष्य में ऐसा न करने वाली बात' उनके गले से भी नहीं उतरी| सो इन्हें उस साल परीक्षा से वंचित कर दिया गया| इधर जब तक इनका पकड़ा जाना एक तमाशा बना रहा, कुछ लोगों ने इसका फायदा उठाते हुए एक प्रश्न 'टीप' कर 14 अंकों का जुगाड़ कर लिया था| मेरा भी काम पूरा हो चूका था अब मैं हॉल में सिर्फ बोनस के चक्कर में था| इसी दौरान मेरी नजर मित्तल पर पड़ी| वह परीक्षा पास करने के तीनों विधियों का प्रयोग करता था, पहले पढ़े हुए प्रश्नों के उत्तर लिख कर, टॉपर्स एवं मध्यमार्गियों से उत्तर का मिलान करता था, फिर अपनी पर्ची निपटाने के बाद, बाहर से आये हुए पर्चियों का भी लाभ उठाता था| इसने एक अदृश्य 'वाल्व' लगा रखा था, जिसमें ये बाहरी सहायता तो ले लेता था परन्तु दूसरों द्वारा सहायता मांगे जाने पर उन्हें सिद्धांत की बातें समझाने लगता था| इस 'वाल्व एक्शन' की वजह से उसके ऊपर से ना सिर्फ टॉपर्स को प्रदत्त सुरक्षा कवच हटा दिया गया था बल्कि बाकी के टॉपर्स में भय पैदा करने के लिए कई बार उसकी पूजा अर्चना भी हो चुकी थी| मित्तल इसलिए बेचैन था कि वह केवल दो ही विधियों का प्रयोग कर पाया था, उसके बाद कड़ाई हो गयी| बाद का एक घंटा व्यर्थ ही बीता, किसी को बोनस के अंक नहीं मिल पाए क्योंकि जो कार्बन कॉपी पकड़ी गयी थी उसकी पाण्डुलिपि के तलाश में इन्विजीलेटर्स चौकन्ने हो गए थे| स्टुडेंट्स कि हालत '1857 विद्रोह' के उन क्रांतिकारियों की तरह थी जिनका सारा प्लानिंग समय से पहले शहीद मंगल पाण्डेय के विद्रोह की वजह से गड़बड़ा गया था|
अब थ्री-डाईमेंसनल तरीके से माचिस का डब्बा तो अन्दर आ चुका था इसका प्रयोग होना भी बिना समय गंवाए शुरू हो गया| 'ओटा' ग्रुप के एक सीनियर जो पिछले एक घंटे से कलम का त्याग कर के बैठे हुए थे, अचानक गौतम बुद्ध की तरह इनके ज्ञान चक्षु खुल गए और ये बेलगाम होकर लिखने लगे और अपनी 'स्पीड लिमिट' क्रास करने की वजह से पकडे गए| इनके यहाँ से जो पुडिया बरामद हुई वो एक कार्बन कॉपी थी| इनकी उत्तर पुस्तिका ले ली गयी और तहकीकात हो रही थी कि ये पर्ची आई कहाँ से और इसकी पाण्डुलिपि (ओरिजिनल कॉपी) कहाँ है? पकडे गए स्टुडेंट काफी सीनियर और अनुभवी थे, इन्हें यहाँ के 'पीनल कोड' के बारे में टीचर्स से ज्यादा जानकारी थी, इन्हें ये भी पता था कि ये अपराध 'रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर' श्रेणी में नहीं आता, अतः फांसी नहीं होगी| ये हिम्मत न हारते हुए घडियाली आंसू टपकाते रहे, फिर "ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं" की दुहाई दी, जब कोई फायदा नहीं हुआ तो एकाध कसमें भी खाए कि भविष्य में वो ऐसा कभी नहीं करेंगे| टीचर्स बाकी बातों पर विश्वास कर भी सकते थे, परन्तु इनके भूत को ध्यान में रखते हुए 'भविष्य में ऐसा न करने वाली बात' उनके गले से भी नहीं उतरी| सो इन्हें उस साल परीक्षा से वंचित कर दिया गया| इधर जब तक इनका पकड़ा जाना एक तमाशा बना रहा, कुछ लोगों ने इसका फायदा उठाते हुए एक प्रश्न 'टीप' कर 14 अंकों का जुगाड़ कर लिया था| मेरा भी काम पूरा हो चूका था अब मैं हॉल में सिर्फ बोनस के चक्कर में था| इसी दौरान मेरी नजर मित्तल पर पड़ी| वह परीक्षा पास करने के तीनों विधियों का प्रयोग करता था, पहले पढ़े हुए प्रश्नों के उत्तर लिख कर, टॉपर्स एवं मध्यमार्गियों से उत्तर का मिलान करता था, फिर अपनी पर्ची निपटाने के बाद, बाहर से आये हुए पर्चियों का भी लाभ उठाता था| इसने एक अदृश्य 'वाल्व' लगा रखा था, जिसमें ये बाहरी सहायता तो ले लेता था परन्तु दूसरों द्वारा सहायता मांगे जाने पर उन्हें सिद्धांत की बातें समझाने लगता था| इस 'वाल्व एक्शन' की वजह से उसके ऊपर से ना सिर्फ टॉपर्स को प्रदत्त सुरक्षा कवच हटा दिया गया था बल्कि बाकी के टॉपर्स में भय पैदा करने के लिए कई बार उसकी पूजा अर्चना भी हो चुकी थी| मित्तल इसलिए बेचैन था कि वह केवल दो ही विधियों का प्रयोग कर पाया था, उसके बाद कड़ाई हो गयी| बाद का एक घंटा व्यर्थ ही बीता, किसी को बोनस के अंक नहीं मिल पाए क्योंकि जो कार्बन कॉपी पकड़ी गयी थी उसकी पाण्डुलिपि के तलाश में इन्विजीलेटर्स चौकन्ने हो गए थे| स्टुडेंट्स कि हालत '1857 विद्रोह' के उन क्रांतिकारियों की तरह थी जिनका सारा प्लानिंग समय से पहले शहीद मंगल पाण्डेय के विद्रोह की वजह से गड़बड़ा गया था|
maja aa gaya boss!... hamesha ki tarah.. bahut hi imaandari purwak vivran diya hai..
ReplyDeleteThanks Sumit!!
ReplyDeleteआपको ब्लागस्पाट पर देखकर एवं आपके लेखन का रसपान कर के अत्यंत ख़ुशी हुई.... अच्छा लगता है ये जानकार की उस समय आप लोग कितने creative हुआ करते थे ..... OAT, KK झा जैसे नाम अब नहीं होते है NIT में ... इन्टरनेट ने दोस्ती का दायरा बढ़ा दिया परन्तु दोस्ती का असली स्वाद समाप्त कर दिया .... आशा है आपके इस ब्लॉग से प्रेरणा लेकर हम लोग फिर से अपनी जिंदगी जीने के लिए पढ़े एवं कमायें न की कमानें के लिए जिए :)
ReplyDeleteAdarsh 2k7 batch
Thanks Adarsh!!
ReplyDeleteअरबिन्द बहुत अच्छा लिखा है भाई तुम ने! अपने RIT मे इतना सबकुछ होता था? मरेको अभि पता चल रहा है|
ReplyDeleteThapa!! मैं तो डर रहा था की तुम गुस्सा करोगे, तुम्हारा नाम आने की वजह से. Thanks a lot.
ReplyDeleteअरे भाई मै क्यों गुस्सा करु मेरे दोस्तपे जो सच बता रहाहै और मेरेको retroactively इतना कुछ जाननेको मौका दे रहा है अपना RIT के बारेमे!
ReplyDeleteSuch a nice piece of work, I salute you Sir. While reading I had undergone a series of laughter and thoughts.
ReplyDeleteKavi aisa lag raha tha ki ye ghatnaye 1988 ki hain aur sirf katha ke patra badal diye gayen Hain.
Now I will be following you on all such work.
Congrats OTA
Thanks Sanjeev!!
ReplyDeleteArbind, Once again fantastic. Keep it up.
ReplyDeleteWrite something on Ragging period. That will involve everyone as everybody will remeber that and can relate with oneself. Once you finish, 50 such blogs, we shall publish your "RIT gatha" for all RItans and all NITans.
Vishwas P Pitke (85 Batch)
Arbind boss.... its wonderfull reading your blogs.... itna sateek aur baareek... my god it details the each and ecery aspect of all jugad to pass the exam by hook or crook....
ReplyDeleteBoss pls keep writing..... dont know how other (non ritians) take this but for RITians this is gonna be mahagranth of RIT life...
Bhopali-92
sir.. hats off to you...
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