Wednesday, April 13, 2011

6. बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल ...

                                    कॉलेज के स्टुडेंट्स के लिए स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस 'लाल डब्बा' का वही महत्व था जो निर्जन टापू पर फंसे किसी यात्री के लिए सहायतार्थ भेजे गए जहाज का होता है| इसे देख कर ये 'कॉन्फिडेंस' हो जाता था कि, अब जब मर्जी हो बिस्टूपुर जाया जा सकता है| बस 'में/पर' बैठने को लेकर डाउन हॉस्टल और अप हॉस्टल में एक अघोषित अनुबंध था| 'गेस्ट एपीयरेंस' को छोड़ कर ज्यादातर 'अप हॉस्टल' के लोग 'अप' में अर्थात बस की छत पर और डाउन हॉस्टल के लोग 'डाउन' में अर्थात बस के अन्दर बैठ कर सफ़र करते थे| लड़कियां छत पर नहीं बैठती थीं, उन्हें मन मारकर बस के अन्दर ही बैठना पड़ता था| बचपन में पढ़ा था कि मलेरिया 'मादा एनोफ़िलेज़' मच्छर के काटने से होता है। इसके काटने पर 'खून की कमी' और बुखार के साथ उबकाई के लक्षण उभरते हैं। पता नहीं क्यों कॉलेज के एक लड़के को लोग मलेरिया बुलाते थे| लिंग के हिसाब से यह 'मादा' नहीं था तो क्या हुआ, देखने में अवश्य एनोफ़िलेज़ मच्छर इसी के जैसा होता होगा| इसका काटना तो दूर, इसे देखकर ही 'खून की कमी' होने के साथ, बुखार और उबकाई आने लगती थी| बस 'डाउन होस्टल' से 'अप होस्टल' होते हुए बिस्टुपुर को जाती थी| गर्ल्स होस्टल वाले चौराहे के पास कॉलेज की ही कुछ लड़कियों के हाथ देने पर बस रुकी|मलेरिया बस के गेट के पास ही खड़ा था, उसने बस में चढ़ती हुई एक लड़की के साथ पता नहीं क्या किया कि लड़की ने उसे गाली दिया "यू .... सन ऑफ़ ए बिच!" उसे गाली देते हुए मैंने सुन लिया था| मलेरिया के हाव-भाव से ही लग गया कि उसने लड़की को छेड़ा होगा, इच्छा हुई कि उसकी पूजा अर्चना वहीँ करूँ, परन्तु लड़की सुन्दर थी, लोग कुछ उंच-नीच सोचने लग जाते| मलेरिया को भी यकीन था कि मैंने लड़की को गाली देते हुए सुना है, अतः झेंप मिटाने के लिए वो मुझ से मुखातिब होकर बेशर्मी पूर्वक बोला, "मुझे 'सन ऑफ़ ए बिच' बोल रही है|"  मैंने अपना थूक निगलते हुए थोड़ा ऊँचे स्वर में जवाब दिया, "उसे कैसे पता? जरूर उसने अंग्रेजी उपन्यास 'सन ऑफ़ ए विच' का नाम लिया होगा, ये अलग बात है कि तुम पर फिट बैठ गया|" सभी हंस पड़े, मलेरिया मेरे इस बात को मजाक घोषित करते हुए बोला, "बाप रे बाप! आपकी हाजिर जवाबी, मान गए बॉस!" उसने यह वाक्य ना तो बाप की इज्जत करने के लिए बोला था ना ही मेरे हाजिर जवाबी की प्रशंसा करने के लिए| दरअसल उसे गुस्सा बहुत आया था परन्तु उसे मेरे 'मसक्यूटो कण्ट्रोल' क्षमता के बारे में ज्ञान था, अतः मेरी बात का बुरा न मानते हुए 'हें हें हें हें' करते हुए और 'दांतों ही दांतों में' ये बताते हुए कि वह पान भी खाता है, बस से नीचे उतर गया| लड़की ने मुझे कृतज्ञता से देखा और मैंने मन ही मन यह सोचते हुए कि काश मैं इसके और काम आ पाता, बड़प्पन से उसके कृतज्ञता भरी नजर को स्वीकार किया| पूरे रास्ते मैं और 'कृतज्ञता भरी नजर' के लालच में उसके तरफ देखता रहा परन्तु लड़की आसमान से गिर कर खजूर में अटकने के 'मूड' में नहीं थी इसलिए दुबारा वो कृतज्ञ नहीं हुई| 

                              बस के अन्दर और ऊपर स्टुडेंट्स ने अपने स्थान ग्रहण कर लिए थे| बस अपने रफ़्तार से चलने लगी| बस की छत पर बैठे स्टुडेंट्स को जूनियर होने की वजह से ज्यादा काम करना पड़ता था, जैसे छत पर जोर जोर से गाना गाने के साथ बीच बीच में गायन स्थगित कर के जोर से सीटी बजा कर या शोर मचा कर बस के अन्दर वालों को ये बताना पड़ता था कि बाहर का दृश्य दर्शनीय है| बिस्टूपुर के रास्ते में एक नदी आती थी जिसका नाम खरकाई था, इस नदी में कभी कभी सचमुच पानी दिखाई देता था| इस नदी को पार करने के लिए एक पुल बना था, उस पुल के पास कुछ पुलिस वाले अक्सर तास खेलते हुए सिर्फ अपनी मौजूदगी से ही 'क्राइम कंट्रोल' करते थे| छत पर बैठे स्टुडेंट्स को खरकाई पुल पार करते वक़्त दोनों तरफ से इन पुलिस वालों को गाली देनी होती थी| पुलिस वालों पर इन गालियों का कोई प्रभाव नहीं होता था, ये दीन-दुनियां से बेखबर तास के पत्तों में ही चोर-डाकू ढूंढ़ते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहते थे| इसके तुरंत बाद पुल पार करते ही बस की छत थपथपा कर ड्राइवर को याद दिलाना होता था कि बस बाएं मोड़ कर महिला कॉलेज के तरफ से ले जानी है, वैसे ड्राइवर भी यही चाहता था| बस का महिला कॉलेज की तरफ मुड़ना लड़कों के साथ-साथ बस के अन्दर बैठी लड़कियों के लिए भी आवश्यक था| उन्हें भी प्रतिस्पर्धा की दुनियां में अपना 'लुक्स और बिहैवियर' के गुणवत्ता को ऊंचा बनाये रखने के लिए यह एक एडुकेशनल टूर जैसा होता था| लाल डब्बे के बिस्टूपुर पहुँचने पर स्वतः ही ऐलान हो जाता था कि आक्रमण हो चुका है, जिसे जहाँ दुबकना है, दुबक ले वरना किसी भी हादसे के लिए तैयार रहे| उसके बाद बिस्टूपुर में सभी को अपने अपने आवश्यक कार्यों जैसे माल-न्यूट्रीशन, सेल्फ-न्यूट्रीशन, पुस्तकें खरीदना, चाय-सिगेरेट पीना, जड़ी-बूटी (जड़ी बूटी का अर्थ प्रबुद्ध पाठक समझ ही गए होंगे) और सोम रस वगैरह खरीदना, किसी को बेवजह पीटना, इत्यादि करने होते थे|

                                  मैं आनंद में एक डोसा खाने के लालच में घुसा, हमारे एक सीनियर तीन लोगों के साथ पहले से वहां मौजूद थे, मैंने उनको अनदेखा करने की कोशिश की| क्योंकि उनकी मौजूदगी में मैं जो भी खाता उसके भी पैसे सीनियर होने की वजह से उनको ही देने पड़ते| परन्तु उन्होंने इस बात की परवाह किये बिना मुझे भी अपने ही टेबल पर बुला लिया| हम से दो टेबल छोड़ कर तीन लड़कियां बैठी हुई थीं उसमें से एक लड़की जो कि देखने में ठीक-ठाक थी, बार बार मुझे घूर रही थी और बाकी लड़कियों को भी दिखा रही थी| ये सारी लड़कियां महिला कॉलेज की ही थीं| मुझे उनका ये बार बार देखना अच्छा तो लग रहा था परन्तु कारण नहीं समझ आ रहा था| मैंने चोर नजरों से अपने आप का निरीक्षण किया कि कहीं कोई बटन तो नहीं खुला रह गया या कहीं से मेरे कपड़े तो नहीं फटे हैं, आखिर इस लड़की के बार बार देखने का कारण क्या है?  खाने के दौरान हम लोगों में बिस्टूपुर की दुर्दशा पर चर्चा होती रही, और मैं नजर बचा कर ये देखता रहा कि लड़की मुझे देख रही है या नहीं| फिर बात चली कि कुछ बाहरी शरारती तत्व आज कल नटराज के पास खड़े रहते हैं और महिला कॉलेज की लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ करके हमारे कॉलेज का नाम बदनाम करते हैं| हम नहीं चाहते थे कि हमारे कॉलेज का नाम कोई और ख़राब करे, इसके लिए हम किसी के मोहताज नहीं थे, अतः हम लोग उन्हें वहां से भगा कर अपने बल बूते पर अपने कॉलेज का नाम ख़राब करते थे| इस बात चीत के दौरान भी वो लड़की मुझे बार बार देख रही थी, और अब मुझे भी लगने लगा कि मैंने उसे कहीं देखा है| मैंने स्मरण करने की भरपूर, परन्तु व्यर्थ कोशिश की| थोड़ी देर बाद वो लड़की बाकी की लड़कियों के साथ नयनों के अंतिम तीर फेंकते हुए बाहर चली गयी, मुझे अब उस लड़की में रूचि से ज्यादा उसके प्रति उत्सुकता हो रही थी| मन किया पीछे से मैं भी बाहर जाऊं परन्तु हमारे सीनियर के तेज के सामने यह इच्छा भस्म हो गयी, मैं निस्तेज हो गया और मन मसोस कर बैठा रहा| उस समय हमारे प्रबुद्ध सीनियर के चेहरे पर एक समाज सुधारक वाली आभा थी, लग रहा था कि अगर उनके निर्देशों पर जल्दी अमल नहीं किया गया तो बिष्टुपुर का तख़्त हाथ से जाता रहेगा| फिर सभी ने मिलकर एक योजना बनाई| यह एक ऐसी योजना थी जिसमें महिला कॉलेज के सामने मौजूद इन शरारती तत्वों को मार पीट कर भगाना था| इस योजना का नाम 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के तर्ज पर 'ऑपरेशन स्वच्छ नटराज' दिया गया और इसके लिए एक तिथि निश्चित कर के सभा भंग कर दी गयी| बिल पेमेंट करते वक़्त सीनियर के बटुए में पर्याप्त पैसे नहीं होने के वजह से उन्होंने दुकानदार से पैसे लिख लेने को कहा और आगे बढ़ गए, दुकानदार मुस्कुराते हुए कुछ लिखने का अभिनय करने लगा| मेरा कद ऊंचा होने की वजह से मैं साफ़ देख पा रहा था की वह कुछ नहीं लिख रहा है और उसे पता है की ये पैसे नहीं मिलने वाले हैं| इस 'पैसा लिख लेने' को और वो 'पैसा कभी नहीं देने' की पूरी प्रक्रिया को हम लोग 'चन्दन करना' या 'लाल करना' कहते थे और यह सुविधा केवल कुछ लोगों को ही मिलती थी|

                                   आनंद से निकलने के बाद उसी लड़की को अकेली बाहर खड़ी देख कर मेरी बांछें खिल गयीं| मैं उस लड़की की तरफ हिम्मत कर के लपका, और जाते ही तपाक से पुछा,
"हम लोग कहीं मिल चुके हैं क्या?"
लड़की ने एक सीनियर का नाम ले कर पुछा, "क्या तुम उनको जानते हो?"
ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, बात वही बढ़ा रही थी, मैंने उसे बताया, "अरे वो तो मेरे बड़े नजदीकी हैं|",
आज राशिफल देख कर हॉस्टल से निकला था, लिखा हुआ था कि "कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त हो सकती है| संतान सम्बन्धी निर्णय सोच कर लें| नौकरों पर अतिविश्वास ठीक नहीं है|" मुझे राशिफल में लिखी पहली लाइन सत्य होती दिखी, बाकी की दो लाइनें मुझ पर लागू नहीं होती थीं|
मैंने कहा, "दो दिन पहले ही तो मैं उनके घर गया था|"
लड़की मुस्कुराते हुए बोली, "येस्स! वहां तुम्हें चाय लाकर किसने दिया था? मैं उन्हीं की बहन हूँ|"
मैंने अपने स्मरण शक्ति को मन ही मन जी भर के कोसा| फिर कुछ औपचारिक बातें करने के बाद अपनी खिली बांछें समेटे दुखी मन से जा कर बस में बैठ गया| अभी बस खुलने में थोड़ा समय था, बगल में नंदू बैठा हुआ और अपने शरीर के एक महत्वपूर्ण अंग को खुजला रहा था| उसे 'एन० एफ़० टी०' मिल गया था, वह घोड़े जैसा मुंह लटकाए हुए था| 'एन० एफ़० टी०' का विस्तार 'नॉट फिट फॉर टेक्निकल एडुकेशन' होता था यह उपाधि फर्स्ट इयर में लगातार दो बार फेल होने पर मिलती थी| 'एन० एफ़० टी०' मिलने के बाद एक डाक्टरी सर्टिफिकेट के साथ हाई कोर्ट में अपील करने के बाद आमरण अनशन पर बैठना होता था| बहुत मुश्किल से फिर से पढ़ाई जारी करने की अनुमति मिल पाती थी| इससे ज्यादा आसान पढ़ कर फर्स्ट इयर एक ही झटके में पास कर लेना होता था| नंदू हाईकोर्ट में अर्जी दे आया था, अब अनशन के लिए सपोर्ट जुटाने में लगा था| लोहा लोहे को काटता है, सो नंदू के दुःख को देखते हुए मेरा दुःख थोड़ा कम हो गया| और हम लोग कॉलेज लौट आये|     

                                डाउन हॉस्टल की नीरसता दूर करने में 'दादू हट' का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान था| दादू हट कॉलेज से दक्षिण की ओर डाउन हॉस्टल जाते वक़्त क्रिकेट ग्राउंड के ठीक सामने अर्धनिर्मित ऑडिटोरियम के गोद में अवस्थित था| इस हट के सामने कुछ ईंट के ऊपर एक कंक्रीट का पोल और हट की दीवार से लग कर एक लकड़ी का पटरा रखा हुआ था| एक लकड़ी का पटरा हट के अन्दर भी लगा था, जो संभवतः शैलेन्द्र के लेटने के लिए लगाया गया था| शैलेन्द्र उदग्र से ज्यादा क्षैतिज अवस्था में ही पाया जाता था| हट के बाहर बैठ कर हम लोग चाय सिगरेट के साथ जाने कितनी बातें करते रहते थे, और शैलेन्द्र बीच बीच में सोना स्थगित कर के अन्दर से ही अपना 'एक्सपर्ट कमेन्ट' देता रहता था| सत्तर वर्षीय दादू इस हट का संचालन करते थे| दादू की शायद अपनी कोई औलाद नहीं थी| इतिहास पूछे जाने पर इनके चेहरे पर एक चमक आ जाती थी, और ये बताते थे की ब्रिटिश टाइम में एक अंग्रेज के घर में काम करते थे और इनके अच्छे काम से खुश होकर कभी कभी अंग्रेज मेम इन्हें चूम लेती थी| यह बात बताते वक़्त दादू का कान लाल हो जाता था, शरीर कांपने लगता था और वो अतीत की कल्पना में खो जाते थे| एक गजब की ताक़त थी दादू के शरीर में| उस सत्तर वर्ष की अवस्था में भी साईकिल पर लाद कर दूर से पानी लाना, मार्केट से जाकर सामान लाना, इतने सारे स्टुडेंट्स को चाय, बिस्किट, सिगरेट लाकर देना| उस समय तो ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन अब सोचकर सब कुछ जादू सा लगता है| शायद ही किसी ने दादू को दुखी देखा होगा| अब लगता है कि काश उनके बारे में कुछ और जान पाता| 'दादू हट' पर बैठ कर सामने के ग्राउंड में चल रहे क्रिकेट मैच देखना और उस पर टीका-टिप्पणी करना एक अत्यंत ही सुखद एहसास था| बाद के दिनों में मेरे बैच के कुछ स्टुडेंट्स के पहल पर वहां अखबार मंगाया जाने लगा, जिससे दादू हट की रोचकता और बढ़ गयी| रोज सुबह अखबार पढने के बाद, जोशी का 'सामान्य ज्ञान' सत्र शुरू होता था, जिसमें जोशी अखबार लेकर खुद को 'सिद्धार्थ बसु' समझते हुए सबसे हेडलाइंस पर आधारित प्रश्न पूछता था, जैसे,
प्रश्न -"मेरठ में तीन मरे, 'कितने' घायल?"
उत्तर- "ग्यारह|"
प्रश्न -"कश्मीर में अलगाववादियों को देखते ही 'क्या' मार देने का आदेश?"                  
उत्तर -"गोली|"
प्रश्न - "महालक्ष्मी लाटरी! बम्पर ड्रा 'कितने' लाख का?"
उत्तर - "पंद्रह लाख का|"
प्रश्न - "दिल्ली में 'कैसी' ठंढ?"
उत्तर - "कड़ाके की"                            
इत्यादि|
                             हाँ! तो बात दादू की हो रही थी, दादू समय के बड़े पाबंद थे| उनका हट अपने निश्चित समय पर ही खुलता था| बाकी के समय में चाय मांगने पर दादू दूध या चायपत्ती की कमी बता कर चाय पिलाने से मना कर देते थे| आज कल दादू विपिन को बहुत ढूंढ़ते रहते थे और कारण पूछने पर टाल देते थे| इस रहस्य का खुलासा विपिन ने ही किया| दरअसल विपिन ने दादू को कुछ ऐसी किताबों का चस्का लगा दिया था, जो एकांत में पढ़ने योग्य होती थीं| अब विपिन जब चाहे दादू से चाय बनवा कर पी सकता था| एक दिन मैं और शैलेन्द्र दादू हट पर चाय पीते हुए ज़माने की हालत अर्थात कॉलेज में व्याप्त प्रेम प्रकरणों पर गौर कर रहे थे, और अभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचने ही वाले थे कि सोई जी साईकिल पर सवार आते दिखे, मैंने उनसे दूर से ही पुछा कि मेरा कोई पत्र आया है क्या? सोई जी ने साईकिल से उतर कर मेरा मुंह देखते हुए फिर पत्रों से भरे झोले को देखते हुए जवाब दिया कि,
"आपका पत्र ........ तो .......... आया ...... नहीं है|"
ये उनकी विशेष अदा थी| अंत में जाकर पता चलता था कि पत्र आया है अथवा नहीं| उसी समय डाउन से अप की ओर जाते हुए एक लड़के ने सोई जी से पूछा. "सोई जी! मेरा कोई पत्र या वेलेंटाइन कार्ड तो नहीं आया है?"
शैलेन्द्र से रहा नहीं गया, उसके मुंह से निकला, "हुंह! बाप मनावें नागपंचमी, बेटा वेलेंटाइन डे!"
लड़का इस आत्मविश्वास से शैलेन्द्र की बातों को नजरंदाज कर के आगे बढ़ गया जैसे वित्त विधेयक प्रस्तुत करते वक़्त मंत्री किसी ऐरे-गैरे सांसद की बात पर ध्यान नहीं देकर विधेयक ज्यों का त्यों पेश कर देता है| एक-एक चाय और पी कर, मैं और शैलेन्द्र हॉस्टल कि ओर बढ़ चले|

                               अभी हम होस्टल में घुसने ही वाले थे कि एक कार होस्टल के सामने आकर रुकी, और उसमें से एक पुरुषनुमा महिला और एक महिलानुमा पुरुष बाहर निकले| पूछ-ताछ करने पर पता चला कि ये परेरा के 'पेरेंट्स' हैं| इनके दर्शन करने के बाद मुझे परेरा से नॉर्मल वेशभूषा की उम्मीद करना, बबूल के पेड़ पर आम के फल लगने की कल्पना करना था| इनकी अगवानी करते हुए हम लोग इन्हें एक ऐसे रूम में ले जाकर बिठा दिए जो खास कर ऐसे ही मौकों के लिए तैयार किया गया था| यह रूम एक लोकल स्टुडेंट के नाम पर ऐसे ही स्थितियों से निबटने के लिए एलाट कराया गया था और हाई-फाई पुस्तकों से सजा कर 'पेरेंट्स/गार्जियन' के लिए रिसेप्शन बनाया गया था| रूम का स्वामी अपने घर से ही कॉलेज आता जाता था, उसे इस रूम की आवश्यकता नहीं थी, उसने यह रूम हम लोगों के समझाने पर सामाजिक कार्यों के लिए ही एलाट कराया था| परेरा के पेरेंट्स को रिसेप्शन रुपी रूम में बैठाने के बाद हम उसे ढूंढने के बहाने से वहां से निकले| शैलेन्द्र 'मेस' में चाय के लिए बोल कर 'सचमुच' परेरा को ढूंढने अप हॉस्टल की ओर चला गया| अब मुझे परेरा का 'रूम' ठीक करना था| मैंने उसके रूम का ताला तोड़ा और दीवारों पर चिपके पोस्टर 'इस ध्यान से' उखाड़ने लगा कि वे बाद में भी प्रयोग करने के लायक बच जाएँ| उम्र के हिसाब से पहले 'मैडोना' फिर 'केरेन प्राइस' तदुपरांत 'ब्रुक शील्ड्स' हटाई गयीं| 'सामंथा फॉक्स' को हटाते वक़्त थोड़ा ध्यान विचलित हो जाने की वजह से पोस्टर फट गया| बड़ा दुःख हुआ, परन्तु 'यह संसार परिवर्तनीय है, यहाँ सब कुछ नश्वर है' ऐसा सोचते हुए, मैंने कर्म को प्रधानता दी और सुख-दुःख से अपने को अलग करते हुए बॉलीवुड पर टूट पड़ा| बॉलीवुड में ज्यादा समय नहीं लगा| तभी मेरी नजर दरवाजे के सहारे टंगे कपड़ों के पीछे वाले 'सिंडी क्राफोर्ड' के पोस्टर पर पड़ी, मेरी नीयत इस पोस्टर पर बड़े दिनों से ख़राब थी, उसे भी बाइज्जत उतार कर परेरा के आने से पहले अपने रूम के हवाले कर दिया| पोस्टर हट गए थे, रूम के सारे कोनों में से सिगरेट के टुकड़े फेंके जा चुके थे, कुछ जिन्दा सिगरेट मेरे जेब में जा चुके थे| अब मैं रूम को पुस्तकों से सुशोभित करने में लग गया, थोड़ी देर में ही परेरा का कमरा किसी 'नाटक में दृश्य परिवर्तन' के तर्ज़ पर सजा दिया गया| तभी शैलेन्द्र द्वारा भेजा हुआ परेरा, भागता हुआ आया और रूम में अर्ध-नग्न तस्वीरों के जगह पर पुस्तकों के बोलबाला से संतुष्ट होकर, पहले भगवान को फिर मुझे अंग्रेजी में धन्यवाद ज्ञापन करने के उपरांत अपने पेरेंट्स को अपने रूम में लाने के लिए तथाकथित 'रिसेप्शन' में चला गया| हालाँकि यह धन्यवाद ज्ञापन मेरा पारिश्रमिक नहीं था, ये हमलोगों के बीच एक 'ट्रीटी' था जो 'पेरेंट्स रूपी' बाह्य आक्रमण से निपटने के लिए किया गया था| मुझे लग रहा था कि मैं कुछ भूल रहा हूँ, अचानक याद आया कि पेरेंट्स टॉयलेट की ओर भी जा सकते थे, मैंने तुरत एक मेस ब्वाय को लेकर टॉयलेट की तरफ लपका| अक्सर टॉयलेट की दीवारों पर कुछ 'वाल पेंटिंग' के साथ-साथ कुछ आवश्यक निर्देश और एक विचित्र साहित्य लिखा होता था| इसमें लेखक या कलाकार अपने को गुमनाम रखता था क्योंकि ये कृतियाँ ख्याति अर्जित करने की नीयत से नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी मानसिक विकृति और विक्षिप्तता के बीच की स्थिति को उजागर करने के लिये होती थीं| ऐसे साहित्यकार और कलाकार अप हॉस्टल में ज्यादा पाए जाते थे, अतः डाउन होस्टल का टॉयलेट होने कि वजह से यहाँ ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी| अब मैं यहाँ से निश्चिंत होकर उस लड़के/लड़कों के बारे में सोचने लग गया था जिसने सीधे बिना किसी पूर्व-सूचना के परेरा के पेरेंट्स को होस्टल भेज दिया था| ये ट्रीटी का उल्लंघन था और इसका तुरत दमन होना चाहिए था| शैलेन्द्र शायद इसी वजह से अभी तक नहीं लौटा था| मैं शैलेन्द्र को ढूँढने निकल पड़ा|

14 comments:

  1. maza aa gaya padh kar :)) kitna sajeev chitran hai wah Arvind ji

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  2. Thanks boss!! Hum logo ko oon lamaho ke beech le jaakar blog ke dwara oonko feer se mahsush karaane ke liye. Aisa laga maano padh nahin raha hun balki Dadu ke hut me aapke bagal me baithe ye sab dekh raha hun. :-)

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  3. what a sharp memory you have sir,even after so long you have represented each and every instance as if it has happened yesterday. your presentation projects a real world via a virtual window.

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  4. Har baar ki tarah is baar bhi ekdum jhaakaas.. ye sab padh ke lagta hai ki humlogo ne to college me kuch kiya hi nahi :)

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  5. साष्टांग प्रणाम. अद्वितीय!!


    --प्रांजल श्रीवास्तव

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  6. Thanks Mishra Boss !! Absolutely brilliant writing..

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  7. Bhaiya ke parnam

    Aap Kitne achhe hajir jabab hai ye to mai bachpan se janta hu. aap ko yad hai mai nuton ki theory yad kar raha tha aur aap ate hi mere gal par ek tamacha lagaye the mai thora gusse me aur kuchh jyada hi rote huye puchha tha aapne kyu mara mujhe phir aap ne tisri theory batai thi jo aaj bhi yad hai. pahli aur dusari to accounts ke mayajal me gum ho gai. aap etne achhe likhte hai pata nahi tha par ese parne par lag raha hai mai bhi Jamsedpur eng me tha. etna sajiv chitran hai ki koi bhi tarif karne se nahi rukega. sabbdo ke jal etne achhe aur etne sahi samay par use kiye gaye hai ki na kahte huye bhi sabkuch kahdiya gaya hai. Bahut bahut bahuuuuuuuuuut lajawab.

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  8. dadu ki smratiyan matra reh gyi hai ab aapke RIT mein , NIT banne ke sath sath kafi kuch kho diya is college ne, ye aabhas hua aapke is lekh to padhkar... lal dabba ab ek kisi neta ki chamchamati hui safed poshak sareeki bus se replace ho gya hai, aur ups ke junior ab swam ko junior nai samajhte to sandhi ka to prashn hi nai uthta :|
    bas ye kahiye ki ateet ki smratiyan jab tak hai tab ke ye college hai anyatha ye wakai mein NIT hi rahega ( Nestanabud institute of technology)

    Adarsh ( 2k7)

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  9. Lajawab, Arwind.

    Vishwas Pitke 85 Batch

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  10. bhaiya mai to aap ke lekhan ki kayal ho gai hoon mai nahi janti thi k mere sare bhi aapni hi kism k nagine hai .agar thode historical word istemal karungi to badsah aakbar k nav ratno me se ek...............

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