Monday, March 7, 2011

1. अवांछनीय आरंभ

  पहला दिन - मामाजी के साथ टेल्को कॉलोनी से आर. आई. टी. पंहुचा, दिमाग़ सातवें आसमान पर था, मामा ने एक दिन पहले बताया था कि सीनियर मोस्ट बैच के कुछ लोग उनके परिचित हैं, रैगिंग का डर भी जाता रहा| सबसे पहले 82 बैच के राजीव सिंह से मुलाकात हुई, मैं उनको मामा का दोस्त होने के नाते मामा बोलने ही वाला था कि रौबदार आवाज़ में पूछा गया,
-"क्या पहलवान!! गाना जानते हो?"
-"जी नहीं|" (पहलवान से संगीत की अपेक्षा रखना थोड़ा विचित्र लगा|)
-"जोक्स जानते हो?"
-"जी नहीं|"
-"डांस?"
-"जी नहीं|" (ये और विचित्र लगा|)
-"इंडिया में कितने स्टेट्स हैं बे?"
- "जी ....... पच्चीस ....... छब्बीस ........ जी सॉरी पता नहीं|"
मैं अपलक उन्हें देखता रहा, वे मामा के तरफ मुखातिब होकर तिरस्कार पूर्वक बोले,
-"कहाँ से पकड़ कर लाए हैं इस नमूने को पाठक जी?"
मेरा सारा प्लान चौपट हो चुका था, मेरी जीभ चिपक गयी थी| मेरी हालत बिना टिकट पकडे जाने वाले पैसेंजर की हो गयी थी| मामा को भी कुछ इशारा किया गया और उन्होने वहाँ से कट लेना ही उचित समझा| राजीव सिंह को भी मैं नीरस और बेकार लगा, उन्होने मुझे एक दूसरे सीनियर के हवाले कर दिया| नये वाले सीनियर (अभी भी संपर्क में हैं अतः नाम नहीं लेना चाहूँगा) ने नये सिरे से कुछ पुराने और कुछ नये प्रश्न मिश्रित कर के अपनी विशिष्टता साबित करने की कोशिश की, जोक्स भी खुद ही सुनाते थे और हंसते भी खुद ही थे और हंसते वक़्त हिल हिल कर दूसरों को हँसने को बाध्य करते थे| खैर दिन बड़ी मुश्किल से बीता|
                                अगले दिन कतार बना कर हमलोगों को क्लास करने भेजा गया| गुरु जनों के दिव्य दर्शन हुए, यह आभास हो गया कि ये ज्ञान दे पाएँ या नहीं, गोविंद ज़रूर दिखा देंगे| बाकी के सहपाठियों का अवलोकन करने पर लगा कि अब गाँधी, नेहरू के सपने साकार होने में ज़्यादा समय नहीं लगने वाला| क्लास में दो लड़कियों का भी उपस्थित होना सबसे रोचक लगा| पढ़ाई में कुछ खास जी नहीं लगा, अभी भी राजीव सिंह की नमूने वाली बात मन में घूम रही थी, पढ़ लिख कर देश के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छा थोड़ी संकुचित हो गयी, अब तो इच्छा थी कुछ कर के इन सीनियर्स को दिखाने की||
                              क्लास से निकलने के बाद जिसका डर था वही हुआ, रात को फ्रेशर्स में से ही किसी से सुना था कि इम्मीडियेट सीनियर्स सबसे ख़तरनाक होते हैं, सो मुझे और शैलेंद्र को (मेरा एक बैचमेट जिसे उस दिन "बजरंग बली की जय" बोलने का काम दिया गया था) इन ख़तरनाक जीवों ने पकड़ा, कुछ जोक्स आदान प्रदान होने के अलावा इन लोगों ने कुछ ऐसी किताबें पढ़ने के लिए रेकोमेंड किया जो हर देश, काल और परिस्थिति में प्रतिबंधित रहीं हैं, कुल मिला कर ये लोग उतने ख़तरनाक थे नहीं जितना अपने को दिखाना चाहते थे| इनसे मैने आज दो बातें सीखीं 1. कट्टा शब्द का प्रयोग (कट्टा विशेष का प्रयोग मुझे पहले से आता था) और 2. हवा देना (ये डींग हांकने का पर्यायवाची था).
                              दो तीन सप्ताह जैसे तैसे बीते अब कॉलेज का भूगोल समझ आने लगा था अप होस्टल, डाउन होस्टल, ए. डी. बिल्डिंग, गोपाल, रामजी, दादू, घोड़ा, गेट नंबर वन, पानी टंकी, इत्यादि| (शेरे-पंजाब, बिस्टुपूर, ज़े. डब्लू. सी., नटराज, पायल, वसंत, एम. जी. एम. वग़ैरह जानने में तो 3-4 महीने लग गये|) उसके बाद धीरे धीरे हम लोगों का शब्द सामर्थ्य बढ़ाया गया जैसे लाल डब्बा, हरा डब्बा, मुर्गा बनना, ऐश करना, गच्च रहना, टाईट रहना, चंदन करना, लाल करना, और सबसे महत्वपूर्ण जानकारी वाले शब्द थे 'फ़ाईलम' और सीनियर्स के लिए 'बॉस' का संबोधन|
                             यहाँ आए करीब दस दिन हुए होंगे रात को करीब 9 बजे अचानक एक सीनियर मेरे रूम में पधारे| अहः क्या रूप था!! "भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला ....", पाँच फुट की उँचाई, चेहरा देखते ही लगता था कि किसी अफवाह का शिकार होकर पढ़ने आए हैं, काला रंग तो ईश्वर प्रदत्त था ही उसपर पान खाकर ऐसे दीख रहे थे जैसे कोयले के चूल्‍हे में आग लगी हो| पान दाएँ गाल में दबाकर बाएँ साइड से उन्होने आधुनिक शिक्षा पद्धति के गाल पर तमाचा लगाते हुए कुछ प्रश्न पूछ कर मेरा 'वर्ण विचार' (जाति का ज्ञान) किया, और मनोवांछित उत्तर ना मिलने पर कुछ ऐसी गालियों का प्रयोग किया जिनका कोई अर्थ नहीं था परंतु अपमान सूचक तो थीं ही| 'सीनियर्स के अंग विशेष के प्रति निष्ठा से लिए गये शपथ' को तोड़ने में थोड़ा समय लग गया अतः वे बच निकले, बड़ी तक़लीफ़ एवं हताशा हुई|
                           अगले कुछ दिनों में हम लोगों को फ़ाईलम ज्ञान और अपने फ़ाईलम के प्रति प्रेम हो चुका था, केवल बाकी था दूसरे फ़ाईलम के प्रति घृणा पैदा होना, जिसके लिए हमें ज़्यादा प्रयास नहीं करना पड़ा| सीनियर्स आते थे, हमें उनसे मिले प्यार या तिरस्कार से 'हंसों की तरह नीर-क्षीर विवेक' करना होता था और बड़े स्वाभाविक ढंग से एक फ़ाईलम के प्रति प्रेम और दूसरे के प्रति घृणा पैदा होने के साथ जवान होती चली गयी | अब हम दोनों फ़ाईलम के लोग एक दूसरे के सामने विस्फोटक बने 'टाईट' रहने लगे थे| विस्फोट कभी भी हो सकता था, बस केवल इस लिए नहीं हो रहा था कि अभी सारे फ़ाईलम के लोग सीनियर्स का सेशनल लिखने में लगे थे|
                             इधर कुछ दिनों से हम लोगों की स्थिति में सुधार आया| रोज सीनियर्स प्यार से हाल चाल पूछते, कुछ खिलाते,फिर अपना सेशनल लिखवाने के लिए अपने होस्टेल ले जाते| सेशनल लिखवाने के दौरान हमारे सामान्य ज्ञान को बढ़ाया जाता था| कुछ गुरु जनों के चरित्र उजागर किए जाते थे| अपने से दस-दस साल सीनियर्स की वीरगाथाएँ सुनाई जाती थीं, जिसमें सुनाने वाला उनकी वीरगाथा के साथ साथ अतीत-मोह में डूब जाता था और हम लोग प्रवासी मजदूर की तरह अपने कामों मे लगे रहते थे| इस दौरान हम लोगों ने तकनीक की दुनियाँ में एक महत्वपूर्ण कदम रखा, अब हम 'टोप्पो' करना सीख चुके थे| इसमें पुरानी ड्रॉइंग के उपर नया ड्रॉइंग शीट रख कर पीछे से लाइट जला कर पुरानी ड्रॉइंग की कॉपी तैयार की जाती थी, जो अपने मूल रूप से भी साफ सुथरी होती थी| और इस तरह से 'टोप्पो' हमारी जिंदगी में बाकी के सालों में 'गच्च' रहते हुए 'ऐश' करने के लिए वरदान स्वरूप आया|
                           पता नहीं हमारी सीनियर भक्ति के वजह से या अथॉरिटी (कॉलेज प्रसाशन) के दबाव से, हमें रैगिंग से औपचारिक ढंग से मुक्त कर दिया गया| यदा कदा किसी सीनियर द्वारा (हाजमा ख़राब होने पर) दुर्व्यवहार का दोष लगाते हुए किसी को दण्डित करने की घटना को छोड़ कर सब कुछ शांतिपूर्ण बीतने लगा, लेकिन अब फ्रेशर्स के हास्टल में एक दूसरी आग धधक रही थी, अन्दर ही अन्दर एक ऐसे 'रस्म' का माहौल बन रहा था, जिसे हर साल रिवाज के तौर पर मनाया जाता था| इस रस्म के बाद कॉलेज को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया जाता था फिर हम अपनी किताबें और याद करके 'मिनी ड्राफ्टर' ले कर अपने अपने घर जाते थे|




2 comments:

  1. Boss, ismein surveying ka jikr bhi kiya ja sakta hai...kaise senior log aate the ragging ke liye..

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  2. outstanding blog, sir,
    This is manish from 2k6 batch,NIT jamshedpur.
    You have rendered a very nice projections of those days,
    After reading this,I find things really interesting those days .According to me things became very less vibrant and boring as time passed, and more after transformation of RIT into NIT.

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