Thursday, March 10, 2011

2. घोड़ा डॉक्टर से गोपाल हट तक

                             मैं जिस रस्म का ज़िक्र कर चुका हूँ वह सरस्वती पूजा के आसपास मनाई जाती थी और वस्तुतः यह दो या दो से ज़्यादा फाइलमों के बीच की मारपीट थी| हर साल की भाँति हम फ्रेशर्स भी, फाइलमों में बंटने के साथ-साथ एक दूसरे से इतनी घृणा करने लगे थे की एक दूसरे को पीटने के लिए बस एक तत्कालिक कारण की ज़रूरत थी| जब भी कभी दोनों टीमों के सदस्य आमने-सामने होते थे, चीख चीख कर एक दूसरे के परिवार की महिलाओं के साथ अपना अंतरंग संबंध बताते थे, और अपने पुराना क्राइम रेकॉर्ड बता कर वातावरण में भय पैदा करने लगे थे| जैसे एक अच्छी क्रिकेट टीम में बौलिंग, बैटिंग और फील्डिंग के अलग खिलाड़ियों के साथ कुछ ऑल-राउन्डर होते हैं, हमारी टीम में भी कुछ अफवाही, कुछ असंसदीय भाषा (गालियों) के जानकार, कुछ 'काम ज़्यादा बातें कम' सिद्धांत के अनुयायी (अर्थात् बात समझने से पहले मार बैठने वाले) थे और जिस प्रकार से प्रधान मंत्री एक से ज़्यादा मंत्रियों का प्रभार अपने साथ रख सकता है वैसे ही कुछ सर्व गुण संपन्न ऑल-राउन्डर भी थे, जो मारपीट शुरू करने के लिए किसी के मोहताज नहीं थे| मारपीट होने के बाद अभियुक्तों की जमानत कराना और कॉलेज प्रशासन के दिए गये 'कारण बताओ नोटीस' का जवाब तैयार करना सीनियर्स का काम था| निश्चित रूप से कमोबेश यही स्थिति प्रतिद्वंदी फाइलम की भी थी|
                         दरअसल हमारा कॉलेज, ऐसे इंजीनियरिंग कालेजों में से एक है; जिनकी स्थापना द्वितीय पंचवर्षीय योजना की औद्योगिक परियोजनाओं को पूरा करने के साथ साथ भारतवर्ष की सांस्कृतिक अखंडता को अक्षुण बनाए रखने के उद्देश्य की गयी थी| अब नेहरू जी की सांस्कृतिक अखंडता का सपना तो सपना ही रह गया, कॉलेज ज़रूर कई खेमों (फ़ाईलम) में बँट चुका था| इन फ़ाईलमों में से एक फ़ाईलम ऐसा था जो हर काम इंग्लिश में करता था, गाना गाने से लेकर हँसना, बोलना यहाँ तक की गालियों का आदान प्रदान भी| इस फ़ाईलम के लोग अक्सर चाय की दुकानों, जिन्हे हम 'रामजी हट', 'गोपाल हट', 'दादू हट' के नाम से जानते थे, पर अजीब वेश-भूसा (जैसे फटी जीन्स, गले में ब्लेड जैसा लॉकेट, कान में टॉप्स, विचित्र मुड़ी तुड़ी साइकिल, हाथ में गिटार इत्यादि) में बैठ कर ऐसे ऐसे चीख चीख कर गाने का प्रयास करते थे जैसे हफ्तों से कब्ज के शिकार हों| जो लोग इंग्लिश नहीं बोल पाते थे, उनको इनसे स्वाभाविक दुश्मनी थी| इन लोगों के इंग्लिश बोलने की शैली से प्रभावित होकर मैने भी अपने रूममेट (जिसे सभी आई. ए. एस. कहते थे, और इसका विस्तार 'इनविज़िबॅल आफ्टर सनसेट' था) से अँग्रेज़ी में बात करने का निर्णय लिया, परिणाम स्वरूप अगले तीन-चार दिनों तक हम लोगों में कोई बात-चीत नहीं हुई| लोगों का इन्हें विद्वान समझना तब भूल साबित हुई, जब इन में से अधिकतर लोगों को फ़र्स्ट ईयर के 'टेक्निकल इंग्लिश' का पेपर सेकेंड ईयर में दुबारा देना पड़ा, दरअसल पेपर में ग्रामर भरा पड़ा था, कहीं भी स्टीव विनवुड, क्लिफ रिचर्ड्स, पॉल साइमन या टीना टर्नर का नाम ही नहीं था|
                                कॉलेज प्रांगण की पश्चिमोत्तर सीमा पर कुछ गुरुजनों के निवास के साथ-साथ चीफ वार्डेन के घर के ठीक सामने 'घोड़ा डॉक्टर' का निवास स्थान था, जिसके सामने से हम लोग उन्हें चिढाने के नीयत से हिनहिनाने की आवाज निकालते हुए गुजरते थे| इस इलाके से कॉलेज की तरफ जाने पर दायीं तरफ 'घोडा डॉक्टर' का डिस्पेंसरी था, जहाँ वे मानव शरीर के प्रतिरोधक क्षमता पर भरपूर भरोसा करते हुए हर रोग के इलाज के नाम पर खाने को 'नीमुस्लाइड' और लगाने को 'टिंक्चर आयोडीन' देते थे और तीन दिनों तक इन अचूक दवाओं के असर का इंतजार करने के बाद बाद टी. एम. एच. (टाटा मेन हॉस्पिटल जिसे हम लोग 'तुम्हें मरना है' के नाम से जानते थे) रेफर कर देते थे| रैगिंग के दौरान मुझे बॉस गण ने इनसे ये पूछने के लिए कहा कि लोग इन्हें 'घोड़ा डाक्टर' क्यों कहते हैं? मैं डरते हुए इनके पास गया और संभावित ख़तरों से निपटने भर की दूरी बनाते हुए पूछा,
"सर! मुझे सीनियर्स ने धमका कर ये जानने के लिए भेजा है की लोग आपको 'घोड़ा डॉक्टर' क्यों कहते हैं?"
उन्होने मेरे प्रश्न का एक विजयी मुस्कान के साथ ऐसे उत्तर दिया जैसे उन से कई बार ये पहले भी पूछा जा चुका हो, "ऐसा इसलिए है कि मैं घोड़ों का इलाज करता हूँ |"
इनके बारे में कॉलेज में दो बातें प्रचलित थीं एक तो ये कि इन्होनें आर. आई. टी. कीड़ा काटने के उपचार हेतु एक दवाई का अविष्कार कर लिया है (हालाँकि वो दवाई उन्हीं राम बाणों में से 'टिंक्चर आयोडीन' ही थी|) और दूसरी बात ज़्यादा काम की थी, वो ये कि इनको एक जवान बेटी थी जो देखने में सुंदर भी थी और यदा-कदा लाल डब्बे में बैठ कर बिस्टुपूर आती जाती थी|
                             'घोड़ा डॉक्टर' के डिस्पेंसरी के ठीक सामने चार होस्टलों में से ए, बी, और डी होस्टल में बी. टेक. के, और सी होस्टल में एम. टेक. के स्टूडेंट और कुछ विदेशी स्टूडेंट्स रहते थे| कॉलेज से सस्पेंशन के दौरान बी. टेक. स्टूडेंट्स सी होस्टल में वैसे ही शरण लेते थे जैसे पाकिस्तानी तानाशाह सत्ता छोड़ने के बाद लंदन चले जाते हैं| इन्ही चार होस्टल के समूह को अप होस्टल कहते हैं| इन हॉस्टलों और कॉलेज बिल्डिंग के बीच में विश्व प्रसिद्ध 'गोपाल हट' हुआ करता था, जहाँ चाय के साथ साथ बहुत ही स्वादिष्ट उपमा, एक गोपाल नामक संत सरीखे आदमी और मरणोपरांत उसके पुत्र प्रकाश द्वारा बना कर बेची जाती थी| हम लोगों के लिए 'गोपाल हट' और इसके पूरब में स्थित 'रामजी हट' क्रमशः लोक सभा और राज्य सभा जैसे थे| 'रामजी हट' पर डाउन होस्टल के कोई बॉस जूनियर्स को बैठा कर उसी प्रकार से हवा देते थे जैसे बाबा रामदेव अपने अनुयाइयों को कपाल भाती व अनुलोम विलोम की महिमा बता रहे हों, और जूनियर्स इतनी निष्ठा से उनकी हवा के झोंकों का आनंद लेते थे जैसे वित्त मंत्री के बजट पेश करने के दौरान विपक्ष वाक-आउट कर गया हो और केवल सत्ता पक्ष के ही सांसद सदन में उपस्थित हों| वहीं 'गोपाल हट' अपनी सारी विशेषताओं के अलावा कुछ लोगों के लिए 'फ्लूईड मेकानिक्स' की प्रयोगशाला थी, यहाँ गैसीयस स्टेट अर्थात सिगरेट, बीड़ी और गांजा के साथ-साथ पदार्थ के तरल अवस्था जैसे रम, व्हिस्की, बीयर, इत्यादि पर बड़े सारे प्रयोग किए जाते थे| ये 'फ्लूईड मेकानिक्स' के वैज्ञानिक अपने विभिन्न प्रयोगों के उपरांत साहित्य सेवा में लग जाते थे और अपनी क्षमता के अनुसार नयी गालियों, मुहावरों, शेरों किस्से, कहानियों एवं चुटकुलों का सृजन करने लगते थे|
                              एक इतवार को 'गोपाल हट' पर दो सीनियर्स, जिनमें से एक को पढ़ाई से बहुत लगाव था (खास कर थर्ड ईयर की पढ़ाई से, पिछले तीन सालों से ये थर्ड ईयर में ही थे|), 'फ्लूईड मेकानिक्स' के कुछ प्रयोगों के बाद वार्तालाप करते करते ज़ोर ज़ोर से विलाप करने लगे|
पहला सीनियर - "तुम मेरे साथ ही कचड़ई करोगे, मुझे तुमसे ये उम्मीद नहीं थी|"
दूसरा - "बॉस! आप मुझ पर लांछन लगा रहें हैं|"
पहला - "मेरा कोई छोटा भाई नहीं है, मैं तुझ में अपने छोटे भाई को देखता हूँ, और तुम ने मेरे साथ ऐसा किया?"
दूसरा - "बॉस! 70 परसेंट से भी ज़्यादा आप ने ही पीया है, फिर भी मुझे ही कचड़ा बोलते हैं|"
पहला - "नहीं मैं ही कचड़ा हूँ, साला, इतना दुख मुझे अपने पिताजी के मरने के बाद भी नहीं हुआ था|"
इसके बाद वे 'हाउ-हाउ' कर के अश्रुपूरित नयनों से अपने शरीर को जिस हिस्से पर टिकाए हुए थे उसका एक भाग हल्का सा उठा कर एक विस्फोट जैसा कर के बताया कि वो सदमे में है| दूसरे सीनियर भी पता नहीं दुख के मारे या विस्फोट में से निकली बदबू के मारे 'हाउ हाउ' करने के साथ दहाड़ें मार कर रोने लगे और बोले,
- "मेरे भी पिताजी मरे थे तो मैने इतना नहीं रोया था|"
ये दोनों सीनियर्स मेरे ही फाइलम के थे, दोनों के पिता नहीं होने की वजह से मुझे दोनों पर बड़ी दया आई, मैने किसी तरह से इन्हे चुप कराना चाहा परंतु इनका 'हाउ हाउ' बढ़ता ही गया, मुझे ज़्यादा डर इस बात का था कि कहीं दूसरे फाइलम के लोग इस 'हाउ हाउ' के उद्‍गम स्थल को नहीं ढूँढ निकालें| इस बीच मेरे एक मित्र देवदत्त सिगेरेट की तलाश में इधर आते दिखे और मैं उनकी सहयता से किसी तरह से इन 'अनाथ सीनियरों' को इनके रूम तक पहुँचाया, फिर बाद पता चला कि दोनों के बाप जिंदा हैं, और ये दो प्रकार के शराब की 'कॉकटेल' का असर है कि ये लोग जिस के कारण अस्तित्व में हैं, उसी के अस्तित्व को नकार रहे हैं|
                            देवदत्त बंगाली थे लेकिन पटना (बिहार) में पैदा हुए थे, और इस वजह से हम लोग इन्हें प्रत्यक्षतः 'सोने पर सुहागा' और परोक्ष में 'करैला और नीम चढ़ा' बोलते थे| देवदत्त से सभी दोस्ती को लालायित रहते थे क्योंकि इनकी पहुँच गर्ल्स होस्टल में थी, हालाँकि इनसे मेरी दोस्ती अपनी फायलम-निरपेक्ष छवि बनाने के लिए थी क्योंकि मैं एक फायलम विशेष का सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते कॉलेज प्रशासन की निगाह में था| कुछ लोग देवदत्त को सिगेरेट के लिए भी देर सवेर ढूँढते रहते थे| हालाँकि साथ रहने का कारण जो भी हो, लेकिन धीरे धीरे हम लोगों की दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी और हम लोग एक दूसरे से अपने सुख-दुःख बाँटने लगे| फिलहाल मेरे पास बाँटने के लिए के दुःख के नाम पर केवल ये था कि कॉलेज की हॉकी टीम में मेरा चयन नहीं हुआ था| चयन करने में 'फाइलमबाजी' हो गयी थी| 'फाइलमबाजी' एक ऐसी अनैच्छिक क्रिया है जो कितना भी विद्वान व्यक्ति हो उससे हो जाती है और उसको पता भी नहीं चलता, हमेशा दूसरों से इसके बारे में जानकारी मिलती है| खैर जो भी हो अब मेरे लिए 'हॉकी स्टिक' केवल सामरिक महत्व की चीज़ रह गयी थी|


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