Thursday, April 28, 2011

7. साधन और साध्य में फर्क

                          पढाई, और वो भी खास कर के इंजीनियरिंग की, मुझे कभी रास नहीं आयी, परन्तु मेरे सामने कोई विकल्प नहीं था| मेरे सारे ख्वाब और अरमान इसी रास्ते पर चलने से पूरे होते थे| मुझे भविष्य का ज्ञान तो नहीं था, परन्तु मेरा वर्तमान पूरी तरह से इसी पर टिका हुआ था| इसी के वजह से हॉस्टल में रहने की आजादी मिली थी, अच्छे मित्र मिले थे (मैं तो उन्हें अच्छा मानता हूँ) और कैम्पस के बाहरी दुनियां में प्रतिष्ठा मिली थी| जब पैसे की तंगी होती थी घर पर कोई पुस्तक खरीदने की बात बोल कर मंगा लेता था| छोटे से शहर का रहने वाला था, पास पड़ोस के सभी जानते थे की मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता हूँ, अच्छा रुतबा था| इतनी सारी फैसिलिटीज के बदले में अगर मेरे जन्म से पहले प्रकाशित हुई कानेटकर की सर्वेयिंग की किताब पढनी पड़े तो भी बुरा सौदा नहीं था| पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सब कुछ मेरे लिए अनुकूल था| मेरे कुछ मित्रों को यहाँ अच्छा नहीं लगता था उन्हें ये कॉलेज भी अच्छा नहीं लगता था| वे लोग ऐसा दिखाते थे जैसे यहाँ आकर फँस गए हों, उनके माँ-बाप ने किसी गलती की सजा देने के क्रम में यहाँ पढने भेज दिया हो| मैं क्लास कम ही करता था अतः मुझे यहाँ के शिक्षण के स्तर के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता था, फिर भी मैंने जो भी क्लास की, गुरुजनों ने कोई अनुचित बात नहीं बताई| जो टॉपर टाईप के लोग थे उन्हें भी यहाँ की पढ़ाई से कोई ज्यादा शिकायत नहीं थी| यहाँ के शिक्षकों और शिक्षा को वही लोग ज्यादा गाली देते थे जिन्हें पढ़ाई से कोई खास सम्बन्ध नहीं था| कुछ लोग तो खाने जैसी चीज को इतना महत्व देते थे और इस तरह से उसे बुरा बताते थे जैसे 'एंट्रेंस एक्जाम' देकर यहाँ सिर्फ खाना खाने के लिए आये हों, मेरी नजर में खाना एक साधन था, साध्य नहीं, जिस दिन स्वादिष्ट लगा ज्यादा खा लिया वरना बस भूख मिटा ली| या इसके विपरीत जिस दिन भूख जोरों की लगी, वही खाना स्वादिष्ट लगा वरना मैं भी उन निंदकों के साथ सुर में सुर मिला लेता था| 


                            एक दिन मेस में मैं, बाबा, अनुराग, जाट इत्यादि  भोजनोपरांत दही खाते हुए जाट से 'बस्ती वाली घटना' का जायजा ले रहे थे| अभी दो दिन पहले जाट तीन-चार लोगों के साथ होस्टल के पीछे वाली बस्ती में आयोजित मेले में गया था और वहां की स्थानीय शराब पी कर इन लोगों ने कुछ हंगामा किया था, उसके बाद इन लोगों को वहां के वासिंदों ने तीर-धनुष लेकर दौड़ाया था| मुझे आश्चर्य इस बात का था कि भागते वक़्त सभी के पैर में कीचड़ लग गया था, परन्तु सबसे ज्यादा नशे में होने के बावजूद भी, जाट का जूता एकदम साफ़ सुथरा था| कारण पूछे जाने पर जाट ने बताया, 
"गुरु! जब जान पर बन आती है तो पगडण्डी अँधेरी रात में भी रेडियम सी चमकती है|" 
इस विवरण के दौरान अनुराग ने एक मेस ब्वाय को दही में डालने के लिए चीनी लाने के लिए भेजा, जब तक वो चीनी लेकर लौटा, अनुराग दही खा चुका था, अनुराग ने उसे झिड़का, 
"अब चीनी का क्या करेंगे?" 
एक इन्ट्रोवर्ट सीनियर जो काफी देर से हम लोगों की बातें सुन रहे थे, उन्हें अपने एक्स्ट्रोवर्ट बनने के लिए यही सबसे उपयुक्त समय लगा, वे खंखारते हुए बोले, 
"इसे खाकर पेट हिला लो चीनी दही में मिल जायेगा|" 
अनुराग बिना चेहरे पर कोई भाव लाये बोला,
"इससे तो अच्छा ये होगा कि कल सुबह चीनी ले जाकर टॉयलेट में ही डाल दें|" 
सीनियर पुनः इन्ट्रोवर्ट हो गए और इश्वर-प्रदत्त बुरे मुंह को थोडा और बुरा बनाते हुए अपना सारा ध्यान रोटी और बैगन पर केन्द्रित कर लिए| 

                         गोपाल हट से दक्षिण, अनिल और विश्वनाथ के पान दूकान के बीच से जंगली घास में होते हुए एक पतला और कच्चा रास्ता कॉलेज कैंटीन की ओर जाता था| कैंटीन में घुसते ही हम लोग करीब अपने समय से पचास साल पीछे चले जाते थे| कैंटीन चालक के रूप में पंडित जी अपने देहाती अंदाज में एक चारपाई लगा कर बैठे रहते थे| और अपने तीन चार नौकरों की सहायता से वहां समोसा, कचौड़ी, जलेबी, चाय इत्यादि के साथ साथ गुलाबजामुन भी बेचते थे| उनके बगल में एक डंडा रक्खा रहता था जिसका प्रयोग वे कुत्तों को भगाने के लिए करते थे| अचानक एक दिन सुनने में आया कि किसी सीनियर ने पंडित जी के सर पर उसी डंडे से ऐसा प्रहार कर दिया कि पंडित जी इंसानियत-इंसानियत चिल्लाते हुए कैंटीन छोड़ कर भाग खड़े हुए| हांलाकि हमलोग पंडित जी के पुनर्वास के प्रयास में अभी लगे ही थे कि सुनने में आया कि 'दारा' कैंटीन चलाने को इच्छुक है, और अगर ऐसा हो गया तो बियर इत्यादि के लिए हमें बार बार बिस्टुपुर नहीं जाना पड़ेगा| 'दारा' कॉलेज कैम्पस से बाहर एक होटल चलाता था, उसने कॉलेज के कुछ प्रभावशाली स्टुडेंट्स को अपने साथ कर लिया था| कॉलेज में एक माहौल बनाया गया, लगता था कि अब बस रामराज आने ही वाला है, 'दारा' के कैंटीन सँभालते ही बेशक दूध-दही की तो नहीं परन्तु बियर कि नदियाँ अवश्य बहने लगेंगी| दारा ने बड़े धूम-धाम से कैंटीन की शुरुआत की| अब वह कैंटीन एकदम से इतिहास के कोने से बाहर निकलकर, वर्तमान को पीछे छोड़ने को लालायित भविष्य की ओर कुलांचे भरने लगा| कुछ दिनों बाद 'दारा' का मन इस 'प्रोजेक्ट' से उचटने लगा| वह भारत के मध्यकालीन इतिहास के 'गुलाम वंश' की तर्ज पर अपने एक चेले रतन को कैंटीन में बिठा कर किसी बड़े प्रोजेक्ट में लग गया| 


                                   रतन मुझे नहीं पहचानता था, मैं भी आजकल खट्टों के बीच कुछ ज्यादा रहने लगा था इस वजह से वह मुझे खट्टा ही समझता था| एक दिन मेरे द्वारा दही मांगे जाने पर उसने दही नहीं होने का बहाना बनाया, और पड़ोस के लड़के को, जो कि मुझ से दो साल जूनियर था, मेरे सामने ही दही लाकर दे दिया| कारण पता लगाने मालूम हुआ कि वह लड़का हॉस्टल मेस छोड़कर खाना भी कैंटीन में ही खाता था और इस वजह से वो 'प्रिविलेज्ड कस्टमर' था|  यह मेरे शान में गुस्ताखी थी, मुझे लगा खट्टे आखिर क्या सोचेंगे? अतः मैंने भी रतन के चेहरे पर अपने 'प्रिविलेज्ड' होने के कई दावे तड़ातड जड़ दिए| उसके मुंह से खून निकलने लगा| अब ये बात वार्डेन के थ्रू प्रिंसिपल तक पहुँच गयी| मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ, डॉक्टर ने मुझे दही से परहेज करने को कहा था, मुझे नहीं मालूम था कि डॉक्टर के परहेज बताने का ये कारण था, मैं तो ख्वामखाह 'इयोसिनोफिलिया' को वजह मानता रहा था| शाम को मुझे ढूंढ़ते हुए चीफ वार्डेन होस्टल तक आये, उन्होंने इस मामले को दिल पर ले लिया था क्योंकि रतन उनके घर में बचपन में नौकर रह चुका था| मुझे सामने पाते ही उन्होंने रतन की पिटाई का कारण पुछा, मैंने उन्हें सब कुछ सच सच बता दिया| 'सॉयल झा' सर ने भी इन्हें समझाया की रतन बदतमीज हो गया था और इसको सबक मिलना जरूरी था, परन्तु चीफ वार्डेन अपने जिद पर अड़े रहे|



                            गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा वर्णित "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा" में जो 'क्षिति' शब्द है वह पृथ्वी अर्थात मिट्टी या माटी तत्व से अपना सम्बन्ध रखता है, इसी माटी से हम पैदा हुए हैं और अंततः इसी में मिल जाना है| इस रहस्य को 'सॉयल झा सर' खूब समझते थे और यह नाम इन्हें 'सॉयल मेकानिक्स' लैब में इसी माटी से खिलवाड़ (जिसे ये रिसर्च बताते थे) करने की वजह से मिला था| शायद इनसे भी ज्यादा अच्छी तरह से गोस्वामी जी द्वारा वर्णित मिट्टी के मर्म को समझा था इनके पी. एच. डी. के गाइड 'वर्मा सर' ने| 'सॉयल झा सर' तो सिर्फ देश की मिट्टी पर ही जान लुटाने को तैयार रहते थे, 'वर्मा सर' तो मिट्टी के मामले में सारी सरहदें पार कर चुके थे| एक बार विदेशी मिट्टी के चक्कर में वर्मा सर जापान गए हुए थे, उन्होंने अपनी सारी क्लासेज 'सॉयल झा सर' को दे दीं थीं| 'सॉयल झा सर' से पढना हम लोगों को अच्छा लगता था, अतः मैं लगातार चार दिनों तक उनकी क्लासेज किया| बाद में पता चला कि मेरा लगातार चार दिन अटेंडेंस बनने की वजह से 'सॉयल झा सर' और 'वर्मा सर' में कुछ कहासुनी हो गयी थी| वर्मा सर कत्तई मानने को तैयार नहीं थे कि मैंने लगातार चार दिनों तक क्लास की होगी| 'सॉयल झा सर' खूब अखबार पढने, क्षमा चाहूँगा अख़बार का अध्ययन करने के लिए कुख्यात थे| अख़बार पढ़ने के बाद ये जबरदस्त से जबरदस्त खबर को बिना जुगाली किये ही पचा लेते थे| 'सत्यं अप्रियं न ब्रूयात' से थोड़ा हटकर ये बिना आवश्यकता के भी अप्रिय से अप्रिय सत्य बोलने की वजह से कई बार जनता-जनार्दन के आलोचना का शिकार बनते रहते थे| इनसे कटु सत्य सुनते रहने के बावजूद भी इनके दो तीन सच्चे मित्र थे, जो शायद 'निंदक नियरे राखिये' को अपने जीवन का आदर्श मानते थे| इन मित्रों का दावा था कि 'सॉयल झा सर' अखबार के जिस हिस्से को पढ़ देते हैं, उसका प्रिंट थोडा फीका हो जाता है| इनके प्रिय मित्रों में से एक 'मिहिर जी' भी थे| बड़ा ही दिव्य स्वरुप था इनका, देखने से इंजीनियरिंग के ज्ञाता कम, संगीत विशारद ज्यादा लगते थे| कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इनके चेहरे पर मुस्कान तैरती रहती थी| एक दिन इनके दाहिने हाथ पर एक छिपकली आ गिरने से ये थोड़े चिंतित दिखे, फिर इन्हें छिपकिली गिरने का अर्थ समझाया गया और बताया गया की पुरुष के लिए दायें अंग पर और महिला के लिए बाएं अंग पर छिपकली गिरना शुभ माना जाता है| चूँकि छिपकली इनके दायें अंग पर गिरी थी अतः इन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं थी| ये अब और ज्यादा चिंतित हो गए, किसी ने मजाक उड़ाने के अंदाज में बोला कि मिहिर जी शुभ-अशुभ से नहीं बल्कि इस बात से डर रहे हैं कि कहीं दुर्घटनावश या छिपकली के नादानी वश इनका लिंग परिवर्तन न हो जाये| अब मिहिर जी ने चुप्पी तोड़ी और बताया मैं महिला बन कर अशुभ घटना झेलने को तैयार हूँ, डर तो ये है कि कहीं आज मेरे साथ कोई घटना हो ही नहीं, लोग क्या सोचेंगे?        

                           कुछ दिनों बाद मुझे रतन मामले में डिसिप्लिनरी कमिटी के सामने पेश होना पड़ा, वहां पूछे जाने पर मैंने घटना के बारे में अपनी अनभिज्ञता जाहिर की और आश्चर्य प्रकट करते हुए बताया कि मैं तो उस दिन कॉलेज में था ही नहीं| मैंने चार स्टैण्डर्ड गवाहों के नाम भी बताये| मेरे साफ झूठ बोलने से चीफ वार्डेन वैसे ही उबल रहे थे, गवाहों के नाम सुनकर वे एकदम से उखड़ गए, उनको मुझसे यह उम्मीद थी कि मैं सब के सामने कहूँगा कि 
"मैं पापी हूँ, नीच हूँ, हिंसक हूँ, मुझे कॉलेज से जल्दी निकाल फेंकिये|" 
मुझे उनके भोलेपन पर बड़ी दया आयी| मैंने तुरत उनसे कहा कि 
"रतन ने एक दिन कैंटीन में गाना गाने पर मुझे धमकी दी थी कि मैं वार्डेन सर का बहुत ही क्लोज रिलेटिव हूँ और आपको एक इशारे पर कॉलेज से बाहर निकलवा सकता हूँ| मैंने रतन के धमकी को अनसुना कर दिया शायद इसी वजह से उसने कुछ मेरे बारे में उंच नीच बोल दिया हो|" 
अब वार्डेन सर का चेहरा देखने लायक था| बाकी के मेम्बर्स भी उनसे बहुत खुश नहीं रहते थे, उन्हें भी एक अच्छा मसाला मिल गया| 'लू सर' ने 'इरशाद-इरशाद' वाले अंदाज में एक बार फिर से कारण पुछा क्योंकि पहली बार में वो कल्पना नहीं कर पाए थे कि मेरे एक्सप्लेनेशन में से इतनी मजेदार बात निकल आएगी| उसके बाद वार्डेन सर को छोड़ कर बाकी सभी मेम्बर ने एक सुर में कहा कि ये अच्छी बात नहीं है, निश्चित ही ये शब्द मेरे लिए नहीं थे| फिर  वे लोग आपस में बातें करने लगे| चीफ वार्डेन मुझे खा जाने वाली नजरों से घूर रहे थे| लेकिन ये कदम मैंने आत्मरक्षार्थ उठाये थे अतः मुझे चीफ वार्डेन सर के शहीद होने का कोई अफ़सोस नहीं था| 


                                कुछ दिनों बाद दिन 'डीन सर' ने मुझे बुलाकर बहुत डांटा और फिर प्यार से पुचकारते हुए कहा, 
"दो तीन दिन के अन्दर तुम्हारे मामले में एक्शन होने वाला है, मुझे पता है कि तुम्हें फंसाया जा रहा है| जल्दी से जल्दी रतन का कम्प्लेन वापस हो जाना चाहिए|" 
मैंने अपने को निर्दोष दिखाने के लिए किन्तु, परन्तु जैसे शब्दों का प्रयोग करने की कोशिश की, जिसका उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं हुआ और उन्होंने मुझ में आस्था व्यक्त करते हुए कहा, 
"कल-परसों में कम्प्लेन वापस हो जाना चाहिए|" 
मैंने कहा, 
"मैं रतन से माफ़ी मांगने की कोशिश करता हूँ|" 
इस पर उन्होंने कुछ काल्पनिक मच्छर उड़ाते हुए कहा 
"हाँ! माफ़ी मांग लो, किसी तरह से कम्प्लेन वापस हो जाना चाहिए, वरना मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा|" 
जाते जाते उन्होंने मुझे हिदायत दी, 
"और तुम ज्यादा जोर से नहीं माफ़ी माँगना|" 
इस बार उन्होंने ये बताते हुए कि वे मुस्कुराते भी हैं मेरे पिछले आधे घंटे से मासूम बनने के सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया| 


                           अगले दिन कॉलेज खुलते ही रतन जाकर पहले प्रिंसिपल को, फिर डीन को बताया कि उसे कुछ गलतफहमी हो गयी थी और वह पिटाई की वजह से घबराहट में किसी बाहरी लड़के को मुझे समझ बैठा था| अचानक उसे सच्चाई याद आ गयी और मुझ निर्दोष को बचाने सुबह सुबह दौड़ा चला आया| जब वार्डेन सर ने उस से अचानक प्रस्फुटित इस आत्मबोध का कारण पूछा तो उसने बताया कि 
"कल शाम से ही हमारे यहाँ अजीब अजीब लोग आने शुरू हो गए हैं और मैं बाल बच्चे वाला आदमी हूँ, मुझ से भूल हो गयी है|"
वार्डेन सर ने रतन को उकसाने के नीयत से पुछा कि उस दिन उसके मुंह से खून कैसे निकल रहा था तो रतन ने अपनी मेडिकल हिस्ट्री बताते हुए कहा कि, 
"मुझे मिर्गी का दौरा आता है उसी वजह से मैं गिर गया था और मुंह से खून निकल आया था|" 
उसके बाद चीफ वार्डेन कुछ हफ़्तों के लिए 'डीप डिप्रेसन' में चले गए|

                              आज हर तरफ नंदू कि ही चर्चा हो रही थी, उसे फर्स्ट इयर की परीक्षा में तीसरी बार बैठने की अनुमति मिल गयी थी|  परन्तु इसमें यह शर्त थी कि अगर वह इस बार परीक्षा नहीं पास करता है तो उसे कॉलेज से निकाल दिया जायेगा|  यह उसके पिछले छः महीने से हाईकोर्ट दौड़ने और तीन दिन लगातार भूख हड़ताल पर बैठने का परिणाम था| गोपाल हट पर यही बात चल रही थी कि इस बार नंदू को किसी तरह से पास करवा देना है| इसके बाद धीरे धीरे बात प्रमुख मुद्दे से सरक कर देश की खस्ताहाल शिक्षा पद्धति पर आ गिरी| फिर राष्ट्र निर्माण में स्कूलों के महत्व से होते हुए मामला अपने अपने 'स्कूल' पर आ टिका| सभी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे| सेंट माइकेल, सेंट जोसेफ, सेंट जार्ज, सेंट केरेन, सेंट विन्सेंट इत्यादि, शायद ही किसी के स्कूल का नाम ऐसा हो जिसमें 'सेंट' उपसर्ग नहीं जुड़ा था| इसके बाद लोयला, डोन-बोस्को, लोरेट्टो कॉन्वेंट, लिटिल फ्लावर .... मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अगर इनलोगों ने मेरे स्कूल का नाम पूछ दिया तो क्या जवाब दूंगा, अब अंग्रेजी नामों में मुझे बस न्यूटन और कूलम्ब याद आ रहे थे| मुझे अपना स्कूल याद आ गया| बचपन में 'राम दहिन मध्य विद्यालय' में पढ़ा था और बाद में 'एस० पी० विद्या मंदिर' में, ना ही 'सेंट' उपसर्ग ना ही कॉन्वेंट 'प्रत्यय'| अपने दादी का स्मरण हो आया, पर बड़ा गुस्सा आया उनके ऊपर, बचपन में मेरा एड्मिशन देहरादून के एक बड़े नामी स्कूल में कराया जा रहा था परन्तु दादी ने रो धोकर सारा काम बिगाड़ दिया था| मैंने भी मन कड़ा कर के निश्चय किया कि मैं भी अपने स्कूल का नाम 'सेंट रेम्सडीन स्कूल' बताऊंगा, ये 'रेम्सडीन' रामदहिन ही थे| तभी एक लोकल लड़के ने अपने स्कूल का नाम 'राजेन्द्र विद्यालय' बताया तो कलेजे को थोड़ी ठंढक मिली| मैं उससे सट कर बैठ गया| अचानक उस लड़के ने ऐसी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोली कि मैं दूर रजनीकांत के बगल में जा गिरा| तभी रजनीकांत जो 'शेर-ओ-शायरी' के लिए बदनाम हो जाने के बाद आज कल किस्से-कहानियों पर उतर आया था, बोला, 
"क्या फायदा हुआ? बाप के पैसे बर्बाद किये इन स्कूलों में जा कर|" 
सभी रजनीकांत की तरफ देखने लगे, वो अपनी बात जारी रखते हुए बोला, 
"अंत में आये वहीँ ना? जहाँ मैं 'छंगामल इंटर कालेज' से पढ़ कर आया हूँ, और नंबर भी तुम में से नब्बे फीसदी लोगों से ज्यादा लाता हूँ|" 
बड़ा मजा आया| सबके चेहरे देखने लायक थे| मेरे मन का सारा बोझ उतर गया| रामदहिन जी सेंट रेम्सडीन बनने से बच गए| अवश्य उनकी आत्मा रजनीकांत को आशीर्वाद दे रही होगी| लिटिल फ्लावर वाले के चेहरे पर उड़ रही हवाई मुझे 'विंड पोलिनेशन' की याद दिला रही थी| 

                       कुछ दिनों बाद नंदू की फर्स्ट इयर की परीक्षा होने वाली थी, हम लोग जी तोड़ तैयारी में लगे हुए थे, सबका कलेजा मुंह को आया हुआ था, नंदू ने भी अपने स्तर से कोई कमी नहीं छोड़ी थी, परीक्षा की तैयारी में वह हम लोगों का भरपूर साथ दे रहा था, अब हम लोगों को पान सिगरेट के लिए होस्टल से बाहर नहीं जाना पड़ता था, ये सब वस्तुएं नंदू होस्टल में ही पहुंचा दिया करता था| जितना अपने लिए हमने फर्स्ट इयर में पढाई नहीं की थी उससे ज्यादा नंदू की वजह से पढना पड़ा| परीक्षा के दिन सभी ने नंदू को और नंदू ने हमलोगों को 'आल दि बेस्ट' और 'बेस्ट ऑफ़ लक' जैसे शब्दों से ढाढस दिलाया| फिर नंदू सारे इष्टदेवों का स्मरण करते हुए, परीक्षा भवन में जा बैठा| परीक्षा विभाग के पिउन को एक गुलदस्ते में 'फूल', क्षमा चाहूँगा 'फुल' दे कर इनविजीलेशन भी 'पाइन सर' और 'रे सर' का लगवाया गया था| आम तौर पर ये पिउन 'फुल' के बजाय 'अद्धा' या 'पौआ' पर ही मान जाता था, परन्तु इस बार का प्लान 'फूल प्रूफ' बनाना था इसलिए 'फुल' का प्रयोग करना पड़ा| 'पाइन सर' क्षैतिज से तीस अंश ऊपर कोण बना कर हॉल के छत को और 'रे सर' क्षैतिज से तीस अंश नीचे कोण बनाते हुए फर्श को देखते रहते थे, दोनों अगर साथ हों तो ना तो किसी भी प्रकार के हवाई हमले से डरने की जरूरत थी, ना ही सांप, बिच्छू के काटने का भय हो सकता था| बीच के साठ अंश के कोण में क्या हो रहा है इसका आभास इन लोगों को सिर्फ ध्वनि से ही हो पाता था|

                            परीक्षा शुरू होने के बाद प्रश्नों के उत्तर, परीक्षा भवन में पानी पिलाने वाले की सहायता से नंदू तक पंहुचा दिए गए और नंदू ने उन्हें सफलता पूर्वक अपनी उत्तर पुस्तिका में लिख भी दिया| नंदू परीक्षा भवन से बाहर आया, सभी उसके इंतजार में नजरें बिछाए बैठे थे| फिर नंदू ने बताया कि उसने कुछ संशोधन के साथ सारे प्रश्नों के उत्तर लिख दिए हैं, हमलोगों की सारी थकान दूर हो गयी, लगा चलो यज्ञ पूरा हुआ, तभी किसी ने उसके द्वारा किये गए संशोधन के बारे में पूछा, जब नंदू ने सारा ब्यौरा दिया तो हम लोगों के पैरों तले की जमीन खिसक गयी, आँखों के आगे अँधेरा छा गया| दरअसल नंदू ने सारे 'इंटीग्रल साइन' को प्रश्न सोल्व करने वाले की हैण्डराइटिंग की समस्या समझ कर, उसकी जगह को खाली छोड़ दिया था और 'डेल ओपरेटर' ( \nabla के उलटे ट्रेन्गिल को भूल समझ कर सीधा ट्रेन्गिल (Δ) बना आया था| कुछ और भी संशोधन उसने बताये लेकिन अब मुझे सुनाई देना बन्द हो गया था, मैं अब ये पता करने दौड़ा कि कॉपी चेकिंग के लिए कहाँ जाने वाली है| काफी पता करने के बाद पोस्ट-ऑफिस से मालूम हुआ कि कॉपी राउरकेला इंजीनियरिंग कॉलेज के एक टीचर के यहाँ डिस्पैच हुई है, बाद में नंदू के साथ एक उड़िया-अंग्रेजी के दुभाषिये को भी राउरकेला भेजा गया| राउरकेला में जिस शिक्षक के यहाँ कॉपी गयी थी उन्होंने सीधे तौर पर तो नहीं, लेकिन अस्पष्ट तौर पर कहा कि वे कॉपी जांचते वक़्त देखेंगे कि इस मामले में क्या कुछ किया जा सकता है| परन्तु कॉपी जांचने वाले शिक्षक सिद्धांतवादी किस्म के निकले और अंततः हमें 'विज्ञान की दुनियां' से नंदू को अश्रुपूरित नयनों से 'कला की दुनियां' की ओर विदा करना पड़ा|

11 comments:

  1. Very good and entertaining and light manner of hearty facts. Keep it up

    Vishwas Pitke

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  2. Even I am having a deep nostalgic feeling after reading this blog,,,,,, I solute this presentation and would like to present some lines in the great memories of RIT/NIT and the great friends we got there - -

    The grass was greener
    The light was brighter
    The taste was sweeter
    The nights of wonder
    With friends surrounded
    The dawn mist glowing
    The water flowing
    The endless river

    Forever and ever

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  3. Sir I didnt know that u have such an excellent writer / columnist hidden in u.
    Simply G H A Z A B.

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  4. again a masterpiece !!!
    superlike d reply to dat introvert senior ;)

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  5. आपकी साहित्यिक प्रस्तुति मनोरंजक होने के साथ हमें अतीत में विचरण करने को मजबूर कर देता है. आपको सादर धन्यवाद.

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  6. That school point was very gud sirji
    mann ko kaafi confidence mila ab... :)

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  7. good and entertaining, appreciable writing skills, nice !

    Raj Kumar Thakur

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  8. I salute ur writing skill....very nice arbind...

    Manoj das

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