अपने करीबियों की नजरों में जैसे तैसे और अपनी नजर में बिना किसी विशेष प्रयास के मैंने मैट्रिक की परीक्षा तो पास कर ली, अब बारी थी इंटर में एडमिशन की। पढ़ाई से कभी मुझे ज्यादा लगाव नहीं था, पर इतना पता था कि आर्ट्स में बहुत पढ़ना पड़ता है इसलिए शुभचिंतको के तमाम विरोध के बावजूद मैंने साइंस विषयों का चयन किया। बायोलॉजी के ऊपर गणित को प्राथमिकता देने का भी कमोबेश यही कारण था। और अपने नामांकन के लिए मैंने बक्सर शहर के सर्वश्रेष्ठ कॉलेज 'महर्षि विश्वामित्र महाविद्यालय' का चयन किया। ऐसा नहीं था कि मुझे पटना या रांची के किसी बड़े कॉलेज में जाने की इच्छा नहीं थी, ना ही मुझे गृहासक्ति (home sickness) ही था, दरअसल मैट्रिक परीक्षा के मार्कशीट ने मेरे ह्रदय में मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम भर दिया। आज का यह आलेख पाठकों को उसी एम० वी० कॉलेज से परिचय कराने की एक कोशिश है।
बक्सर भारत वर्ष के बिहार राज्य का एक शहर है। यह शहर अपने पौराणिक और ऐतिहासिक गाथा के लिए प्रसिद्ध है। बनारस के साथ सांस्कृतिक समानता और गंगा के किनारे बसे होने की वजह से बक्सर को 'मिनी काशी' के रूप में भी जाना जाता है। इसे महर्षि विश्वामित्र का शहर भी कहा जाता है, क्योंकि यही मिट्टी महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि रही है। भगवान राम और लक्ष्मण के युद्ध कौशल की इंटर्नशिप यहीं पर हुई थी। जैसा कि यहाँ का हर युवा अपनी शिक्षा पूरी करते ही अपने दाम्पत्य जीवन के सपने देखने लगता है, प्रभु राम भी बक्सर की धरती पर ही ताड़का वध और अहिल्या उद्धार करने के बाद स्वयंवर हेतु जनकपुर निकल लिए थे। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह शहर 'बक्सर की लड़ाई (1764 ई०)' और 'चौसा की लड़ाई ( 1539 ई०)' के लिए प्रसिद्ध है। ये लड़ाइयां बहुत बड़ी तो नहीं थीं किन्तु इनके परिणाम ने पूरे देश की राजनीति को ही बदल दिया।
विश्वगुरु बनने को आतुर भारत के बिहार राज्य में स्थित बक्सर शहर आदिकाल से ऋषि मुनियों का स्थान रहा है। बक्सर के ही एक महान समाज सुधारक एवं दार्शनिक श्री खाकी बाबा ने स्वयं एक धार्मिक गुरु होते हुए भी आधुनिक शिक्षा सहित सह शिक्षा (Co-Ed) का महत्व समझा और इस उद्देश्य से उन्होंने 11 जून, 1957 को एम० वी० कॉलेज, बक्सर की नींव रखी। इनकी दूरदर्शिता का अनुमान सिर्फ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अगर इन्होंने इस कॉलेज को 'को-एड' नहीं बनाया होता तो इतिहास विभाग और लाइब्रेरी के बीच निर्मित गर्ल्स कॉमन रूम की क्या उपयोगिता रह जाती?
गर्ल्स कॉमन रूम कॉलेज के उस भाग में था जिधर आर्ट्स की पढाई होती थी लेकिन हमारे जैसों के लिए उधर किसी ना किसी बहाने राउंड मारना एक उपलब्धि हुआ करती थी। हमारे जैसे विद्यार्थियों के लिए एम० वी० कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम अन्य विद्यार्थियों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण था क्योंकि हम वहां बी० बी० हाई स्कूल से गए थे जहाँ सिर्फ लड़के पढ़ते थे, लड़कियां नहीं पढ़ती थीं। हमें वो सारी जानकारी जल्दी से जल्दी प्राप्त करने की इच्छा होती थी जो एम पी हाई स्कूल वालों को बचपन से सुलभ थी और उनसे हमारे ईर्ष्या का कारण थी। बी० बी० हाईस्कूल का फुल फॉर्म जाति सूचक होने की वजह से बताना मैं उचित नहीं समझता।
गर्ल्स कॉमन रूम से लगे उत्तर की ओर लाइब्रेरी और उसके बाद साइकोलॉजी की प्रयोगशाला थी। और उत्तर की ओर बढ़ने पर 'मोहब्बतें फ़िल्म के अमिताभ बच्चन' सरीखे कॉलेज के सबसे दबंग प्रोफेसर द्वारकाधीश राय का चैम्बर था, इन्होंने मेरे पिताजी को भी पढ़ाया था। उत्तर दिशा में इसके ठीक बाद साइकोलॉजी विभाग था। यहीं पर साइकोलॉजी के प्रोफेसर जगदानंद मिश्रा बैठते थे। ये थोड़े लिबरल थे, इनका इमेज 'मोहब्बतें फ़िल्म के ही शाहरुख खान' जैसा था। गर्ल्स कॉमन रूम के आस पास रहने के लिए इनका सान्निध्य अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित था। किन्तु इनसे निकटता बनाने में सबसे बड़ी बाधा ये थी कि ये मेरे बड़े भाई के सबसे प्रिय गुरु थे। गर्ल्स कॉमन रूम से लगे दक्षिण की ओर कोने पर इतिहास विभाग था। इतिहास विभाग से लगे पश्चिम की ओर तीन क्लास रूम थे। इतिहास विभाग के चैम्बर के ठीक सामने सीढ़ियों के बगल में संस्कृत विभाग की प्रोफेसर श्रीमती सावित्री सिन्हा बैठा करतीं थीं। प्रोफेसर्स की संख्या ज्यादा होने की वजह से हर चैम्बर में कई प्रोफ़ेसर बैठा करते थे। कुल मिलाकर गर्ल्स कॉमन रूम के आस पास आर्ट्स फैकल्टी के प्रोफेसर्स का ही बोलबाला था।
कॉलेज का मेन गेट पूरब की ओर एक चौराहे पर स्थित था, जहाँ एक चाय समोसे की दुकान हुआ करती थी। जिन विद्यार्थियों का चाय वाले के यहाँ ज्यादा उधार हो जाता था उनके लिए उत्तर दिशा में साइंस फैकल्टी की साइड से भी एक गेट की व्यवस्था की गयी थी। इस गेट से गंगा के किनारे भी जाया जा सकता था। गंगा का यह किनारा प्रेमी युगल के एकांत में प्रेमालाप करने और प्रेमिका नहीं उपलब्ध होने पर शौच करने के काम आता था। गंगा के किनारे पर कभी कभी कुछ विद्यार्थी दो या तीन की संख्या में बैठ कर अत्यंत ही रहस्यमय ढंग से मार्किट से खरीदे गए सिगेरट, माचिस, कुछ पुड़िया इत्यादि को हवन सामग्री के तर्ज पर जमीन पर रख कर धूम्रपान पर शोध करते रहते थे। ये एक साधारण सी सिगरेट के अंदर भरे हुए तम्बाकू रुपी घास फूस को बाहर निकालते थे फिर उसके अंदर अत्यंत सावधानी से पुड़ियों में रखी हुई कुछ दिव्य औषधियों को भरते थे। इनके इस कार्य के दौरान इनकी एकाग्रता और दक्षता देखते बनती थी। स्पष्ट दीखता था कि कि इस मिटटी में ही तपस्वियों को जन्म देने की क्षमता है। इनके कठिन तपस्या एवं परिश्रम से प्राप्त सिगेरट देखने में भले थोड़ी मुड़ी तुड़ी होती थी किन्तु इसमें तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति को भी महान दार्शनिक बना देने की शक्ति होती थी। इसका सेवन देखने में आम सिगेरट की तरह ही किया जाता था किन्तु परिणाम चमत्कृत कर देने वाला होता था। उस सिगेरट के सेवनोपरांत ये लोग ऋषियों की भांति 'सुखं दुःखं समेकृत्वा' वाले भाव में आ जाते थे और दीन दुनियां से बेखबर कॉलेज में विचरण करने लगते थे।
कॉलेज के पूरब वाले अर्थात मेन गेट से कॉलेज में घुसते ही एक खेल का मैदान होता था, जहाँ अक्सर आस पास के बच्चे गिल्ली डंडा, टायर रेस और पिट्ठू टाइप गेम खेलते रहते थे और कभी कभी आपस में लड़ाई कर के ऊँची आवाज में एक दूसरे के घर की स्त्रियों में दिलचस्पी दिखाते रहते थे। यह मैदान सामरिक रूप से भी महत्वपूर्ण था। कॉलेज के विद्यार्थी कई ग्रूपों में बंटे थे जैसे सिविल लाइंस ग्रुप, सोहनी पट्टी ग्रुप, चरित्र वन ग्रुप, पण्डे पट्टी ग्रुप, कुशवाहा लॉज इत्यादि। कॉलेज में जब भी कभी दो गुटों के बीच मारपीट होती थी, इसी मैदान को प्रयोग में लाया जाता था। शुरू के दिनों में लड़ाई के दौरान साइकिल की चेन और छुरा तक का प्रयोग होता था। किन्तु बाद के दिनों में सोहनी पट्टी ग्रुप ने एकाध बार स्कूल लेवल पर ही छुरे का प्रयोग कर के उसे कॉलेज के लिए अनुपयुक्त बना दिया। अच्छे अच्छे छुरेबाजों का कॉलेज में भाव गिरने लगा। कहते हैं कि 'आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है।' छुरेबाजों ने हार नहीं मानी। ज्यादातर लोगों ने कट्टा खरीद कर अपने को अपटूडेट कर लिया। मैदान से उत्तर की ओर एक साइकिल स्टैंड हुआ करता था। साइकिल स्टैंड के गार्ड को गांजे की लत थी अतः यहाँ भी धूम्रपान सम्बन्धी प्रयोग होते रहते थे परन्तु यहाँ सिगेरट के अंदर सिर्फ गांजा सरीखी आर्गेनिक वस्तुएं ही भरी जाती थीं जब कि गंगा किनारे हेरोइन जैसी रासायनिक वस्तुओं को भी प्रयोग में लाया जाता था।
खेल के मैदान को पार करते ही पानी टंकी के बाद थोड़ी ऊंचाई पर कॉलेज का दो मंजिला भवन स्थित था। इसे डेढ़ मंजिला कहना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि उस समय ऊपरी मंजिल पर उत्तरी हिस्से में निर्माण नहीं हो पाया था। भवन उत्तरी और दक्षिणी दो हिस्सों में एक गलियारे से विभाजित होता था। यह गलियारा कॉलेज के सबसे बड़े क्लास रूम 'मानस' की और जाता था। मानस में एक साथ 200 से भी ज्यादा विद्यार्थी ना सिर्फ बैठ सकते थे बल्कि चाहें तो पढ़ भी सकते थे। फिजिक्स, केमिस्ट्री और हिस्ट्री में विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा होने की वजह से इन विषयों की क्लास मानस में ही लगती थी। गणित के विद्यार्थियों को फिजिक्स और केमिस्ट्री की क्लासेज ज्यादा रोचक लगती थीं क्योंकि इन क्लासेज में बायोलॉजी के स्टूडेंट्स को भी संयुक्त रूप से पढ़ाया जाता था और गणित की तुलना में बायोलॉजी में लड़कियों की संख्या और गुणवत्ता क्रमशः ज्यादा और बेहतर होती थी। कमोबेश ऐसे ही कारणों से हमें कभी कभी इतिहास पढ़ने की प्रबल इच्छा होती थी।
गर्ल्स कॉमन रूम और तमाम आर्ट्स फैकल्टी कॉलेज के दक्षिणी हिस्से में थे और उत्तरी हिस्सा जिसकी ऊपरी मंजिल का निर्माण नहीं हो पाया था, साइंस फैकल्टी के काम आता था। आर्ट्स फैकल्टी, साइंस फैकल्टी और 'मानस' 'अंग्रेजी के 'ई' अक्षर' के आकार के एक बरामदे से जुड़े हुए थे। मानस के गलियारे से उत्तर की और लगातार जूलॉजी और बॉटनी के प्रोफेसरों का कक्ष एवं प्रयोगशालाएं थीं। गणित के विद्यार्थियों में इन प्रयोगशालाओं के प्रति गर्ल्स कॉमन रूम जैसी ही दिलचस्पी थी, क्योंकि बायोलॉजी वाली लड़कियां ज्यादातर इधर ही पायी जातीं थीं।
उत्तर पूर्व कोने से पश्चिम की ओर जाने में पहले नंबर पर फिजिक्स की प्रयोगशाला थी, जिसके ठीक सामने फिजिक्स विभाग था। फिजिक्स के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर रामाशीष सिंह हुआ करते थे। इनका एक फ़िल्मी नाम भी हुआ करता था। मुझे बहुत इच्छा होती थी मैं भी इन्हें उसी नाम से पुकारूँ, लेकिन इसमें दो अड़चनें थीं एक तो प्रैक्टिकल के मार्क्स यहीं से फाइनल होते थे, दूसरे ये मेरे पिताजी के मित्र थे। विभागाध्यक्ष महोदय के अलावे फिजिक्स विभाग में और भी कई प्रोफेसर हुआ करते थे। जिनमें से एक थे प्रोफेसर श्याम जी मिश्रा। ये कॉलेज में अभी नए नए आये थे। इनमें कॉलेज में पढ़ाने का जज्बा था। इन्हें अभी इस कॉलेज की हवा नहीं लग पायी थी, ट्यूशन नहीं पढ़ाते थे। ये न्यूमेरिकल प्रश्नों को भी सरलता से हल कर लेते थे और इस वजह से विद्यार्थियों के प्रिय हुआ करते थे।
गणित विभाग का ऑफिस बनने से पहले फिजिक्स विभाग में ही गणित के भी प्रोफेसर्स बैठा करते थे। गणित के विभागाध्यक्ष श्री एस के मिश्रा (जो प्रख्यात साहित्यकार श्री केदार नाथ मिश्र 'प्रभात' के पुत्र थे।) हुआ करते थे। सारे पढ़ाकू टाइप के विद्यार्थी और कुछ ऐसे विद्यार्थी जिन्हें पढ़ाकू कहलाने का शौक था, वे इन से ही ट्यूशन लिया करते थे। गणित विभाग में एक और प्रोफेसर अखौरी धनेश सिन्हा हुआ करते थे जो कमजोर विद्यार्थियों के काम आते थे। गणित में मेरी अच्छी पकड़ होते हुए भी मैं बिना अपनी इमेज का परवाह किये इनसे ही ट्यूशन लेता था। क्योंकि कॉलेज ज्वाइन करते ही मेरी एक लड़के से लड़ाई हो गयी थी और वो मेरे हाथों पिट गया था। उसका घर प्रोफेसर एस के मिश्रा के घर के आसपास ही था और मुझे जान पर खेल कर गणित पढ़ना कत्तई पसंद नहीं था। धनेश जी के पढ़ाने का तरीका अत्यंत ही सरल था। मैंने उनसे गणित के साथ साथ अध्यापन का तरीका भी सीखा जिसके लिए मैं उनका सदैव ऋणी रहूँगा।
फिजिक्स की प्रयोगशाला से लगे पश्चिम की ओर हाइड्रोजन सल्फाइड की गंध लिए केमिस्ट्री प्रयोगशाला हुआ करती थी, जिसके बगल में केमिस्ट्री विभाग का ऑफिस था। केमिस्ट्री के मेरे पसंदीदा प्रोफेसर बाला जी वर्मा हुआ करते थे ये अभी नया नया कॉलेज ज्वाइन किये थे। जब ये स्टूडेंट्स के बीच होते थे तो अनजान आदमी नहीं समझ पाता था कि इस झुण्ड में कोई प्रोफेसर भी है। एक बार मेरे बड़े भैया ने इनको क्रिकेट कमेंट्री सुनते हुए देख कर स्कोर पुछा। भैया इनको नहीं पहचानते थे लेकिन भैया कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहने की वजह से लाइमलाइट में रहते थे, अतः वर्मा सर इन्हें पहचानते थे और उन्होंने भैया को स्टूडेंट होने के नाते मुंह लगाना उचित नहीं समझा। भैया के दुबारा पूछने पर भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो भैया ने उनसे पुछा कि "जब इंग्लिश कमेंट्री समझ नहीं आती तो रेडियो का बैटरी क्यों बर्बाद कर रहे हैं?" बाद में भैया को भी उनके प्रोफेसर होने की बात पता चल गयी और उन्हें बहुत ग्लानि हुई। एक बार मैंने हिम्मत कर के उस घटना के बारे में सर से पूछ ही लिया। मेरी उत्सुकता इस बात में ज्यादा थी कि आखिर स्कोर बता देने से क्या बिगड़ जाता। फिर उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि दरअसल उस समय कोई क्रिकेट मैच चल ही नहीं रहा था और वे उस समय न्यूज़ सुन रहे थे। सर पूरा सच नहीं बोल रहे थे, क्योंकि मुझे पता था कि उन्हें न्यूज में जरा भी रूचि नहीं थी, वे फ़िल्मी गानों के बहुत शौक़ीन थे और अक्सर रेडियो का प्रयोग गाने सुनने के लिए ही करते थे।
अंग्रेजी के अक्षर 'ई' आकार के बरामदे के दोनों कोनों पर सीढियाँ हुआ करतीं थीं जो पहली मंजिल पर बने क्लास रूम्स, प्रशासनिक कार्यालय और प्रिंसिपल साहब के चैम्बर को ले जातीं थीं। चूँकि दक्षिण पूर्व के कोने वाली सीढी के आसपास ही ज्यादातर आर्ट्स के प्रोफेसर्स बैठते थे और वो 4.30 बजे तक बैठते थे। इसलिए उसका प्रयोग सिर्फ ऊपर जाने और आने के लिए होता था लेकिन पूर्वोत्तर वाली सीढ़ी का प्रयोग कई रूप में होता था। यहाँ साइंस के प्रोफेसर्स के चैम्बर्स थे और वो 2.00 बजे खाली हो जाते थे। दरअसल कक्षाओं की संख्या सीमित होने की वजह से साइंस की पढाई सुबह 6.30 से 2.00 तक होती थी वहीं आर्ट्स के स्टूडेंट्स 10 बजे कॉलेज पहुँचते थे और 4.30 बजे तक रह सकते थे और चाहें तो पढ़ भी सकते थे। इस सीढ़ी का नाना प्रकार से उपयोग 2 बजे के बाद ही होता था। प्रोफेसर्स और लड़कियों से छुप कर खैनी बनाने, सिगेरट पीने, ईव-टीजिंग करने से लेकर किसी विद्यार्थी को ऊपर और नीचे से ब्लॉक कर के पीटने तक के सारे कार्य यहीं होते थे।
पहली मंजिल पर दक्षिण-पश्चिम कोने से शुरू हो कर कुल 5 क्लास रूम्स थे। 3 दक्षिण की ओर और 2 पूरब की ओर। यहाँ क्लास रूम के बाहर का बरामदा पूर्व दिशा में स्थित खेल के मैदान में घट रही घटनाओं का नजारा लेने के लिए बहुत ही अच्छा था। पहली मंजिल पर ही उत्तर दिशा से एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिस और प्रिंसिपल के चैम्बर में जाने का रास्ता था। प्रिंसिपल साहब के चैम्बर में अक्सर कुछ 'बिना मतलब के' गंभीर रहने वाले प्रोफेसर और कुछ 'बिना मतलब के' ही मृदुभाषी टाइप के कर्मचारी बैठे रहते थे। अक्सर हमें ये उम्मीद होती है कि प्रिंसिपल की कुर्सी पर 'जहाँ तुम पढ़ते हो वहां के हम प्रिंसिपल हैं' के तर्ज पर कोई परिपक्व चेहरा दिखेगा। किन्तु आशा के विपरीत यहाँ जो व्यक्ति बैठा करते थे, इनका भोलाभाला पान खाया हुआ चेहरा देखकर सूरदास द्वारा वर्णित 'चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक लिए' वाली पंक्ति बरबस ही याद आ जाती थी। प्रिंसिपल साहब का नाम श्री गोपाल झा था इनको देख कर अंदाजा लगाना मुश्किल था कि इनका नामकरण इनके रूप के हिसाब से किया गया होगा या नामकरण के बाद चेहरा ऐसा हो गया होगा। साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से अनुमान लगा सकता था कि यहाँ मौजूद लोगों में 'श्री गोपाल झा' कौन से होंगे।
यह आलेख किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं लिखा गया है। बक्सर शहर में सभी एक दूसरे से एक परिवार की तरह जुड़े हुए हैं अतः एम वी कॉलेज के परिचय को संक्षिप्त रखना मेरी मज़बूरी है। मेरा सौभाग्य है कि आज भी इस शहर में 'भैया और चाचा टाइप' मेरे ऐसे अनेक अग्रज मौजूद हैं जिन्हे ये अधिकार है कि मेरी गलती पर मुझे डांट सकते हैं और मैं उनके इस डांट-डपट को आशीर्वाद की तरह लेता हूँ। उन सभी अग्रजों के अलावे अनुजों से भी मेरा आग्रह है कि जहाँ आवश्यक समझें वहां मुझे भूल सुधार करने के लिए अवसर दें। अपने अगले आलेख में इस कॉलेज के बारे में, इसके चौहद्दी के बारे में, और कॉलेज के विद्यार्थियों की बक्सर शहर के मुख्य स्थानों जैसे बस, अलका सिनेमा, रेलवे स्टेशन, अस्पताल और सेंट्रल जेल इत्यादि पर निर्भरता के बारे में वर्णन करूँगा।
बक्सर भारत वर्ष के बिहार राज्य का एक शहर है। यह शहर अपने पौराणिक और ऐतिहासिक गाथा के लिए प्रसिद्ध है। बनारस के साथ सांस्कृतिक समानता और गंगा के किनारे बसे होने की वजह से बक्सर को 'मिनी काशी' के रूप में भी जाना जाता है। इसे महर्षि विश्वामित्र का शहर भी कहा जाता है, क्योंकि यही मिट्टी महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि रही है। भगवान राम और लक्ष्मण के युद्ध कौशल की इंटर्नशिप यहीं पर हुई थी। जैसा कि यहाँ का हर युवा अपनी शिक्षा पूरी करते ही अपने दाम्पत्य जीवन के सपने देखने लगता है, प्रभु राम भी बक्सर की धरती पर ही ताड़का वध और अहिल्या उद्धार करने के बाद स्वयंवर हेतु जनकपुर निकल लिए थे। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह शहर 'बक्सर की लड़ाई (1764 ई०)' और 'चौसा की लड़ाई ( 1539 ई०)' के लिए प्रसिद्ध है। ये लड़ाइयां बहुत बड़ी तो नहीं थीं किन्तु इनके परिणाम ने पूरे देश की राजनीति को ही बदल दिया।
विश्वगुरु बनने को आतुर भारत के बिहार राज्य में स्थित बक्सर शहर आदिकाल से ऋषि मुनियों का स्थान रहा है। बक्सर के ही एक महान समाज सुधारक एवं दार्शनिक श्री खाकी बाबा ने स्वयं एक धार्मिक गुरु होते हुए भी आधुनिक शिक्षा सहित सह शिक्षा (Co-Ed) का महत्व समझा और इस उद्देश्य से उन्होंने 11 जून, 1957 को एम० वी० कॉलेज, बक्सर की नींव रखी। इनकी दूरदर्शिता का अनुमान सिर्फ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अगर इन्होंने इस कॉलेज को 'को-एड' नहीं बनाया होता तो इतिहास विभाग और लाइब्रेरी के बीच निर्मित गर्ल्स कॉमन रूम की क्या उपयोगिता रह जाती?
गर्ल्स कॉमन रूम कॉलेज के उस भाग में था जिधर आर्ट्स की पढाई होती थी लेकिन हमारे जैसों के लिए उधर किसी ना किसी बहाने राउंड मारना एक उपलब्धि हुआ करती थी। हमारे जैसे विद्यार्थियों के लिए एम० वी० कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम अन्य विद्यार्थियों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण था क्योंकि हम वहां बी० बी० हाई स्कूल से गए थे जहाँ सिर्फ लड़के पढ़ते थे, लड़कियां नहीं पढ़ती थीं। हमें वो सारी जानकारी जल्दी से जल्दी प्राप्त करने की इच्छा होती थी जो एम पी हाई स्कूल वालों को बचपन से सुलभ थी और उनसे हमारे ईर्ष्या का कारण थी। बी० बी० हाईस्कूल का फुल फॉर्म जाति सूचक होने की वजह से बताना मैं उचित नहीं समझता।
गर्ल्स कॉमन रूम से लगे उत्तर की ओर लाइब्रेरी और उसके बाद साइकोलॉजी की प्रयोगशाला थी। और उत्तर की ओर बढ़ने पर 'मोहब्बतें फ़िल्म के अमिताभ बच्चन' सरीखे कॉलेज के सबसे दबंग प्रोफेसर द्वारकाधीश राय का चैम्बर था, इन्होंने मेरे पिताजी को भी पढ़ाया था। उत्तर दिशा में इसके ठीक बाद साइकोलॉजी विभाग था। यहीं पर साइकोलॉजी के प्रोफेसर जगदानंद मिश्रा बैठते थे। ये थोड़े लिबरल थे, इनका इमेज 'मोहब्बतें फ़िल्म के ही शाहरुख खान' जैसा था। गर्ल्स कॉमन रूम के आस पास रहने के लिए इनका सान्निध्य अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित था। किन्तु इनसे निकटता बनाने में सबसे बड़ी बाधा ये थी कि ये मेरे बड़े भाई के सबसे प्रिय गुरु थे। गर्ल्स कॉमन रूम से लगे दक्षिण की ओर कोने पर इतिहास विभाग था। इतिहास विभाग से लगे पश्चिम की ओर तीन क्लास रूम थे। इतिहास विभाग के चैम्बर के ठीक सामने सीढ़ियों के बगल में संस्कृत विभाग की प्रोफेसर श्रीमती सावित्री सिन्हा बैठा करतीं थीं। प्रोफेसर्स की संख्या ज्यादा होने की वजह से हर चैम्बर में कई प्रोफ़ेसर बैठा करते थे। कुल मिलाकर गर्ल्स कॉमन रूम के आस पास आर्ट्स फैकल्टी के प्रोफेसर्स का ही बोलबाला था।
कॉलेज का मेन गेट पूरब की ओर एक चौराहे पर स्थित था, जहाँ एक चाय समोसे की दुकान हुआ करती थी। जिन विद्यार्थियों का चाय वाले के यहाँ ज्यादा उधार हो जाता था उनके लिए उत्तर दिशा में साइंस फैकल्टी की साइड से भी एक गेट की व्यवस्था की गयी थी। इस गेट से गंगा के किनारे भी जाया जा सकता था। गंगा का यह किनारा प्रेमी युगल के एकांत में प्रेमालाप करने और प्रेमिका नहीं उपलब्ध होने पर शौच करने के काम आता था। गंगा के किनारे पर कभी कभी कुछ विद्यार्थी दो या तीन की संख्या में बैठ कर अत्यंत ही रहस्यमय ढंग से मार्किट से खरीदे गए सिगेरट, माचिस, कुछ पुड़िया इत्यादि को हवन सामग्री के तर्ज पर जमीन पर रख कर धूम्रपान पर शोध करते रहते थे। ये एक साधारण सी सिगरेट के अंदर भरे हुए तम्बाकू रुपी घास फूस को बाहर निकालते थे फिर उसके अंदर अत्यंत सावधानी से पुड़ियों में रखी हुई कुछ दिव्य औषधियों को भरते थे। इनके इस कार्य के दौरान इनकी एकाग्रता और दक्षता देखते बनती थी। स्पष्ट दीखता था कि कि इस मिटटी में ही तपस्वियों को जन्म देने की क्षमता है। इनके कठिन तपस्या एवं परिश्रम से प्राप्त सिगेरट देखने में भले थोड़ी मुड़ी तुड़ी होती थी किन्तु इसमें तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति को भी महान दार्शनिक बना देने की शक्ति होती थी। इसका सेवन देखने में आम सिगेरट की तरह ही किया जाता था किन्तु परिणाम चमत्कृत कर देने वाला होता था। उस सिगेरट के सेवनोपरांत ये लोग ऋषियों की भांति 'सुखं दुःखं समेकृत्वा' वाले भाव में आ जाते थे और दीन दुनियां से बेखबर कॉलेज में विचरण करने लगते थे।
कॉलेज के पूरब वाले अर्थात मेन गेट से कॉलेज में घुसते ही एक खेल का मैदान होता था, जहाँ अक्सर आस पास के बच्चे गिल्ली डंडा, टायर रेस और पिट्ठू टाइप गेम खेलते रहते थे और कभी कभी आपस में लड़ाई कर के ऊँची आवाज में एक दूसरे के घर की स्त्रियों में दिलचस्पी दिखाते रहते थे। यह मैदान सामरिक रूप से भी महत्वपूर्ण था। कॉलेज के विद्यार्थी कई ग्रूपों में बंटे थे जैसे सिविल लाइंस ग्रुप, सोहनी पट्टी ग्रुप, चरित्र वन ग्रुप, पण्डे पट्टी ग्रुप, कुशवाहा लॉज इत्यादि। कॉलेज में जब भी कभी दो गुटों के बीच मारपीट होती थी, इसी मैदान को प्रयोग में लाया जाता था। शुरू के दिनों में लड़ाई के दौरान साइकिल की चेन और छुरा तक का प्रयोग होता था। किन्तु बाद के दिनों में सोहनी पट्टी ग्रुप ने एकाध बार स्कूल लेवल पर ही छुरे का प्रयोग कर के उसे कॉलेज के लिए अनुपयुक्त बना दिया। अच्छे अच्छे छुरेबाजों का कॉलेज में भाव गिरने लगा। कहते हैं कि 'आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है।' छुरेबाजों ने हार नहीं मानी। ज्यादातर लोगों ने कट्टा खरीद कर अपने को अपटूडेट कर लिया। मैदान से उत्तर की ओर एक साइकिल स्टैंड हुआ करता था। साइकिल स्टैंड के गार्ड को गांजे की लत थी अतः यहाँ भी धूम्रपान सम्बन्धी प्रयोग होते रहते थे परन्तु यहाँ सिगेरट के अंदर सिर्फ गांजा सरीखी आर्गेनिक वस्तुएं ही भरी जाती थीं जब कि गंगा किनारे हेरोइन जैसी रासायनिक वस्तुओं को भी प्रयोग में लाया जाता था।
खेल के मैदान को पार करते ही पानी टंकी के बाद थोड़ी ऊंचाई पर कॉलेज का दो मंजिला भवन स्थित था। इसे डेढ़ मंजिला कहना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि उस समय ऊपरी मंजिल पर उत्तरी हिस्से में निर्माण नहीं हो पाया था। भवन उत्तरी और दक्षिणी दो हिस्सों में एक गलियारे से विभाजित होता था। यह गलियारा कॉलेज के सबसे बड़े क्लास रूम 'मानस' की और जाता था। मानस में एक साथ 200 से भी ज्यादा विद्यार्थी ना सिर्फ बैठ सकते थे बल्कि चाहें तो पढ़ भी सकते थे। फिजिक्स, केमिस्ट्री और हिस्ट्री में विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा होने की वजह से इन विषयों की क्लास मानस में ही लगती थी। गणित के विद्यार्थियों को फिजिक्स और केमिस्ट्री की क्लासेज ज्यादा रोचक लगती थीं क्योंकि इन क्लासेज में बायोलॉजी के स्टूडेंट्स को भी संयुक्त रूप से पढ़ाया जाता था और गणित की तुलना में बायोलॉजी में लड़कियों की संख्या और गुणवत्ता क्रमशः ज्यादा और बेहतर होती थी। कमोबेश ऐसे ही कारणों से हमें कभी कभी इतिहास पढ़ने की प्रबल इच्छा होती थी।
गर्ल्स कॉमन रूम और तमाम आर्ट्स फैकल्टी कॉलेज के दक्षिणी हिस्से में थे और उत्तरी हिस्सा जिसकी ऊपरी मंजिल का निर्माण नहीं हो पाया था, साइंस फैकल्टी के काम आता था। आर्ट्स फैकल्टी, साइंस फैकल्टी और 'मानस' 'अंग्रेजी के 'ई' अक्षर' के आकार के एक बरामदे से जुड़े हुए थे। मानस के गलियारे से उत्तर की और लगातार जूलॉजी और बॉटनी के प्रोफेसरों का कक्ष एवं प्रयोगशालाएं थीं। गणित के विद्यार्थियों में इन प्रयोगशालाओं के प्रति गर्ल्स कॉमन रूम जैसी ही दिलचस्पी थी, क्योंकि बायोलॉजी वाली लड़कियां ज्यादातर इधर ही पायी जातीं थीं।
उत्तर पूर्व कोने से पश्चिम की ओर जाने में पहले नंबर पर फिजिक्स की प्रयोगशाला थी, जिसके ठीक सामने फिजिक्स विभाग था। फिजिक्स के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर रामाशीष सिंह हुआ करते थे। इनका एक फ़िल्मी नाम भी हुआ करता था। मुझे बहुत इच्छा होती थी मैं भी इन्हें उसी नाम से पुकारूँ, लेकिन इसमें दो अड़चनें थीं एक तो प्रैक्टिकल के मार्क्स यहीं से फाइनल होते थे, दूसरे ये मेरे पिताजी के मित्र थे। विभागाध्यक्ष महोदय के अलावे फिजिक्स विभाग में और भी कई प्रोफेसर हुआ करते थे। जिनमें से एक थे प्रोफेसर श्याम जी मिश्रा। ये कॉलेज में अभी नए नए आये थे। इनमें कॉलेज में पढ़ाने का जज्बा था। इन्हें अभी इस कॉलेज की हवा नहीं लग पायी थी, ट्यूशन नहीं पढ़ाते थे। ये न्यूमेरिकल प्रश्नों को भी सरलता से हल कर लेते थे और इस वजह से विद्यार्थियों के प्रिय हुआ करते थे।
गणित विभाग का ऑफिस बनने से पहले फिजिक्स विभाग में ही गणित के भी प्रोफेसर्स बैठा करते थे। गणित के विभागाध्यक्ष श्री एस के मिश्रा (जो प्रख्यात साहित्यकार श्री केदार नाथ मिश्र 'प्रभात' के पुत्र थे।) हुआ करते थे। सारे पढ़ाकू टाइप के विद्यार्थी और कुछ ऐसे विद्यार्थी जिन्हें पढ़ाकू कहलाने का शौक था, वे इन से ही ट्यूशन लिया करते थे। गणित विभाग में एक और प्रोफेसर अखौरी धनेश सिन्हा हुआ करते थे जो कमजोर विद्यार्थियों के काम आते थे। गणित में मेरी अच्छी पकड़ होते हुए भी मैं बिना अपनी इमेज का परवाह किये इनसे ही ट्यूशन लेता था। क्योंकि कॉलेज ज्वाइन करते ही मेरी एक लड़के से लड़ाई हो गयी थी और वो मेरे हाथों पिट गया था। उसका घर प्रोफेसर एस के मिश्रा के घर के आसपास ही था और मुझे जान पर खेल कर गणित पढ़ना कत्तई पसंद नहीं था। धनेश जी के पढ़ाने का तरीका अत्यंत ही सरल था। मैंने उनसे गणित के साथ साथ अध्यापन का तरीका भी सीखा जिसके लिए मैं उनका सदैव ऋणी रहूँगा।
फिजिक्स की प्रयोगशाला से लगे पश्चिम की ओर हाइड्रोजन सल्फाइड की गंध लिए केमिस्ट्री प्रयोगशाला हुआ करती थी, जिसके बगल में केमिस्ट्री विभाग का ऑफिस था। केमिस्ट्री के मेरे पसंदीदा प्रोफेसर बाला जी वर्मा हुआ करते थे ये अभी नया नया कॉलेज ज्वाइन किये थे। जब ये स्टूडेंट्स के बीच होते थे तो अनजान आदमी नहीं समझ पाता था कि इस झुण्ड में कोई प्रोफेसर भी है। एक बार मेरे बड़े भैया ने इनको क्रिकेट कमेंट्री सुनते हुए देख कर स्कोर पुछा। भैया इनको नहीं पहचानते थे लेकिन भैया कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहने की वजह से लाइमलाइट में रहते थे, अतः वर्मा सर इन्हें पहचानते थे और उन्होंने भैया को स्टूडेंट होने के नाते मुंह लगाना उचित नहीं समझा। भैया के दुबारा पूछने पर भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो भैया ने उनसे पुछा कि "जब इंग्लिश कमेंट्री समझ नहीं आती तो रेडियो का बैटरी क्यों बर्बाद कर रहे हैं?" बाद में भैया को भी उनके प्रोफेसर होने की बात पता चल गयी और उन्हें बहुत ग्लानि हुई। एक बार मैंने हिम्मत कर के उस घटना के बारे में सर से पूछ ही लिया। मेरी उत्सुकता इस बात में ज्यादा थी कि आखिर स्कोर बता देने से क्या बिगड़ जाता। फिर उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि दरअसल उस समय कोई क्रिकेट मैच चल ही नहीं रहा था और वे उस समय न्यूज़ सुन रहे थे। सर पूरा सच नहीं बोल रहे थे, क्योंकि मुझे पता था कि उन्हें न्यूज में जरा भी रूचि नहीं थी, वे फ़िल्मी गानों के बहुत शौक़ीन थे और अक्सर रेडियो का प्रयोग गाने सुनने के लिए ही करते थे।
अंग्रेजी के अक्षर 'ई' आकार के बरामदे के दोनों कोनों पर सीढियाँ हुआ करतीं थीं जो पहली मंजिल पर बने क्लास रूम्स, प्रशासनिक कार्यालय और प्रिंसिपल साहब के चैम्बर को ले जातीं थीं। चूँकि दक्षिण पूर्व के कोने वाली सीढी के आसपास ही ज्यादातर आर्ट्स के प्रोफेसर्स बैठते थे और वो 4.30 बजे तक बैठते थे। इसलिए उसका प्रयोग सिर्फ ऊपर जाने और आने के लिए होता था लेकिन पूर्वोत्तर वाली सीढ़ी का प्रयोग कई रूप में होता था। यहाँ साइंस के प्रोफेसर्स के चैम्बर्स थे और वो 2.00 बजे खाली हो जाते थे। दरअसल कक्षाओं की संख्या सीमित होने की वजह से साइंस की पढाई सुबह 6.30 से 2.00 तक होती थी वहीं आर्ट्स के स्टूडेंट्स 10 बजे कॉलेज पहुँचते थे और 4.30 बजे तक रह सकते थे और चाहें तो पढ़ भी सकते थे। इस सीढ़ी का नाना प्रकार से उपयोग 2 बजे के बाद ही होता था। प्रोफेसर्स और लड़कियों से छुप कर खैनी बनाने, सिगेरट पीने, ईव-टीजिंग करने से लेकर किसी विद्यार्थी को ऊपर और नीचे से ब्लॉक कर के पीटने तक के सारे कार्य यहीं होते थे।
पहली मंजिल पर दक्षिण-पश्चिम कोने से शुरू हो कर कुल 5 क्लास रूम्स थे। 3 दक्षिण की ओर और 2 पूरब की ओर। यहाँ क्लास रूम के बाहर का बरामदा पूर्व दिशा में स्थित खेल के मैदान में घट रही घटनाओं का नजारा लेने के लिए बहुत ही अच्छा था। पहली मंजिल पर ही उत्तर दिशा से एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिस और प्रिंसिपल के चैम्बर में जाने का रास्ता था। प्रिंसिपल साहब के चैम्बर में अक्सर कुछ 'बिना मतलब के' गंभीर रहने वाले प्रोफेसर और कुछ 'बिना मतलब के' ही मृदुभाषी टाइप के कर्मचारी बैठे रहते थे। अक्सर हमें ये उम्मीद होती है कि प्रिंसिपल की कुर्सी पर 'जहाँ तुम पढ़ते हो वहां के हम प्रिंसिपल हैं' के तर्ज पर कोई परिपक्व चेहरा दिखेगा। किन्तु आशा के विपरीत यहाँ जो व्यक्ति बैठा करते थे, इनका भोलाभाला पान खाया हुआ चेहरा देखकर सूरदास द्वारा वर्णित 'चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक लिए' वाली पंक्ति बरबस ही याद आ जाती थी। प्रिंसिपल साहब का नाम श्री गोपाल झा था इनको देख कर अंदाजा लगाना मुश्किल था कि इनका नामकरण इनके रूप के हिसाब से किया गया होगा या नामकरण के बाद चेहरा ऐसा हो गया होगा। साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से अनुमान लगा सकता था कि यहाँ मौजूद लोगों में 'श्री गोपाल झा' कौन से होंगे।
यह आलेख किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं लिखा गया है। बक्सर शहर में सभी एक दूसरे से एक परिवार की तरह जुड़े हुए हैं अतः एम वी कॉलेज के परिचय को संक्षिप्त रखना मेरी मज़बूरी है। मेरा सौभाग्य है कि आज भी इस शहर में 'भैया और चाचा टाइप' मेरे ऐसे अनेक अग्रज मौजूद हैं जिन्हे ये अधिकार है कि मेरी गलती पर मुझे डांट सकते हैं और मैं उनके इस डांट-डपट को आशीर्वाद की तरह लेता हूँ। उन सभी अग्रजों के अलावे अनुजों से भी मेरा आग्रह है कि जहाँ आवश्यक समझें वहां मुझे भूल सुधार करने के लिए अवसर दें। अपने अगले आलेख में इस कॉलेज के बारे में, इसके चौहद्दी के बारे में, और कॉलेज के विद्यार्थियों की बक्सर शहर के मुख्य स्थानों जैसे बस, अलका सिनेमा, रेलवे स्टेशन, अस्पताल और सेंट्रल जेल इत्यादि पर निर्भरता के बारे में वर्णन करूँगा।
Grrrrreat
ReplyDeleteअगर बी बी उच्च विद्यालय में जाति की दुर्गंध आपको आती है फिर दुर्भाग्य है वैसे स्कूल और उसके संस्थापकों का । विश्वामित्र भी बक्सर के एक ख़ास जाति का सूचक है । लेकिन उस महाविद्यालय के बखान में आपको गर्व होता है ।
ReplyDeleteआपको शायद पता नहीं होगा कि इस नाम के आपत्तिजनक होने के वजह से ही सरकार ने इस स्कूल का नाम बदल कर 'एस पी विद्या मंदिर' कर दिया था। और मैंने कहीं दुर्गंध की बात नहीं की है, उल्टा ये सामाजिक विभाजन के हिसाब से ऊंची और गौरवशाली जातियां हैं। पता नही आप को ये दुर्गन्ध किधर से आ मिल गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि 'कस्तूरी कुंडलि बसै मृग ढूंढे वन मांहि'?
DeleteThis is incredible! Loved reading it....almost felt like i was there myself!
ReplyDeleteमजा आया। बड़ा परिचित सा लगा। आपने अपने अनुभव को बड़ेे करीने सेे परोसा हैै। जब आप इनको जी रहे होंगे तो ये अनुभव शायद इतने सुथरे रूप में पेश नहीं आए होंगे। बहुत सी बातें गडमड होंगी। लेकिन कालांतर में याददाश्त की बेतरतीबी कम हो जाती है और पैटर्न्स प्रबल। लेखक टाइप लोग पैटर्न पकड़ लेेते हैं। आपने भी बड़ा अच्छा उकेरा है।
ReplyDeleteमैें ये भी सोच रहा था कि शिक्षा और शिक्षण संस्थानों के इर्द गिर्द एक पूरी दुनिया सी बस जाती है। और वहाँँ पहुंचने वाले हर छात्र छात्राएं अपनी अपनी दुनियां लेकर आते हैंं। उन सबों की अपनी अपनी कहानियांं, अपने अपने अनुभव होेते हैें। छोटे शहरों केे कॉलेजों में पढ़ने वाले 'गौरवशाली जातियों' के ज्यादातर लड़कों के अनुभव शायद कुछ इसी किस्म के होते होंगे जैेसेे आपने लिखा है। (हालांकि उसमें भी फर्क की गुंजाइश तो है ही, जैसा कि ऊपर की टिप्पणी से आभास मिलता है।)। लेकिन दलित जातियों/वर्गों के लड़कों का अनुभव कैसा होता होगा? और लड़कियाँ जो ऐसे कॉलेजों में पढ़ती हैं, वो इन कॉलेजों को कैसे याद करती होंगी?
अगले खेप का इंतज़ार रहेगा।
गज़ब लिखा रे भाई। एकदम खांटी। साफा 24 कैरेट। इस आलेख पर मेरी सारी कहानियां कुर्बान। एकदम कालेज में पहुंच गइनी। जिंदाबाद अरबिंद।
ReplyDeleteबहुत शानदार-जानदार आलेख, मित्र, पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है,जैसे हम फिर से उसी उम्र में पहुंच गए। पुरानी यादें ताजा हो गई।
ReplyDeleteबहुत शानदार-जानदार आलेख।पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है कि हम फिर से अपने कॉलेज के उम्र में पहुंच गए। इतना कुछ तो मुझे याद भी नही था, पर पढ़ते पढ़ते सब याद आने लगा। पुरानी यादों को तरोताजा करने के लिए आभार मित्र।
ReplyDelete