Saturday, July 2, 2011

9. तुम्ह पावक महुं करहु निवासा

                              शायद उमस भरी गर्मी की वजह से या फिर अंतर्दाह (एसिडिटी) की वजह से किसी को गाली देने की इच्छा हो रही थी| एकाध ऐसे लोग मिले भी जो गाली के लिए उपयुक्त थे परन्तु ऐसा करने पर दंगा भड़कने का डर था, क्योंकि ये ऐसे लोग थे जो 'फाईलमतंत्र' के सिद्धांत पर चलते थे और 'फाईलमतंत्र' लोकतंत्र की तरह ही न सिर्फ 'फाईलम का''फाईलम के द्वारा' और 'फाईलम के लिए' बना था, बल्कि यह मूर्खों का भी तंत्र थाअतः उनके हिस्से की ध्वनि रुपी गाली को तरल रूप में थूकते हुए मैं एफ़० होस्टल की तरफ एक ऐसे रूम में पहुंचा जो कैसिनो के नाम से विख्यात था| तथाकथित कैसिनो में पहुँचने पर पाया कि एक ओर 'ट्वेंटी-नाइन' नामक ठुमरी चल रही थी, दूसरी तरफ 'फ्लैश' का जलवा थाआठ लोगों का एक गुट 'ट्वेंटी-नाइन' में व्यस्त था| उस ज़माने में (और शायद अब भी) 'ट्वेंटी-नाइन' तास के बावन पत्तों से खेला जाता था, इस खेल में पैसे की जगह पर इज्जत दांव पर होती थी| इसमें तास के पत्ते इस तरह पुराने और घिसे पिटे होते थे कि सामने वाला अगर पारखी हो तो दूसरी ओर से ही पता लगा ले कि कौन सा पत्ता है| इस खेल में कम से कम चार आदमी चाहिए होते थे वैसे अगर आठ लोग हों तो खेल का मजा कुछ और ही होता था| इस खेल में चार लोगों को भारी चिंता में मुंह को छाती तक लटका कर तास के पत्ते लेकर बैठना पड़ता था, बाकी चार लोग एक एक खिलाडी के पीछे बैठ कर उस खेल का आँखों देखा हाल बयां करते थे और जहाँ जरूरत नहीं हो वहां अवश्य बोलते थे| आम तौर पर ये मुख्य खिलाडियों के प्रिय जूनियर्स होते थे और जरूरत पड़ने पर ये अपने अपने मुख्य खिलाड़ी के लिए 'रिले' का भी काम करते थे| बीच बीच में पान-सिगरेट लाने के साथ-साथ झगड़ा-फसाद करने की भी जिम्मेदारी इन्हीं के ऊपर थी| 


                                अभी 'ट्वेंटी-नाइन' का खेल अपने किशोरावस्था में ही पहुँच पाया था उधर फ्लैश का खेल अपने भरी जवानी में ही समाप्ति की ओर बढ़ रहा था, एक तरफ तो 'ब्लफ' का 'ए के-47' कत्लेआम मचाये हुए था तो दूसरी तरफ एक खिलाड़ी अपने अन्दर की सारी हलचलों को दबाये हुए, ऊपर से संतों जैसा चेहरा बनाए, बैल-गाड़ी की तरह अपनी चाल धीरे धीरे आगे बढ़ा रहा था| अचानक उसके अन्दर का संत घबरा गया और उसने हाथ में लिए सिगरेट का एक कश लगाकर निर्विकार भाव से पत्ते फ़ेंक दिए और उधर ब्लफ-मास्टर ने सारे पैसे बटोर कर पेशाब करने जाने के बहाने अपने पारी समाप्ति की घोषणा करनी चाही| इस बात पर हारे हुए खिलाड़ी ने आपत्ति की, "बड़े सिद्धांतवादी बनते रहते हो? अब जीत गए तो पेशाब करने के बहाने से भाग रहे हो?" 
जीतने वाले ने जवाब दिया, "हफ्ते भर बाद आज जा कर जीत पाया हूँ, और तुम इस पर भी मेरा पेशाब रोक रहे हो? ये कौन सा धर्म है?" मुझे तत्काल समझ आ गया कि धर्म और सिद्धांत से भी ऊँचा 'पेशाब' का स्थान होता है क्योंकि धर्म और सिद्धांत सिर्फ आभासी हैं जबकि पेशाब वास्तविक है| इसके बाद कुछ ऐसी बातें होने लगीं जिसमें ये लोग एक दुसरे की व्यक्तिगत बातों को सार्वजनिक करने लगे और जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था| ये एक ऐसी कला थी जिसमें उच्च कोटि की कल्पना की जरूरत होती थी और इसमें कही गयी बातों का अर्थ सुनने वाले के मूड पर निर्भर करता था, जैसे फ्लैश में जीतने वाला इसे मजाक के तौर पर ले रहा था और हारने वाला इसे भद्दी गाली मान रहा था| अब दोनों के आवाजों की तीव्रता (इंटेंसिटी) और तारत्व (फ्रिक्वेंसी) बढ़ने लगा और दोनों पक्ष इसे गाली के रूप में लेने लगा और इससे पहले की ध्वनि उर्जा अर्थात 'गाली-गलौज' यांत्रिक उर्जा अर्थात 'मार-पीट' में बदल जाये लोगों ने 'यु०एन०ओ०' की तर्ज पर बीच बचाव कर के मामले को शांत किया| उसके बाद इन दोनों लोगों की मित्रता शत्रुता में तो नहीं बदली लेकिन अब ये अनन्य मित्र से जघन्य मित्र बन बैठे|       


                                            हमारे कॉलेज में मित्रों के दो प्रकार थे, 'अनन्य मित्र', एवं 'जघन्य मित्र'| अनन्य अर्थात अभिन्न| इस श्रेणी के मित्र उचित अनुचित की परवाह किये बगैर एक दुसरे के लिए कुछ भी कर गुजरने की इच्छा रखते थे| ये अक्सर कुछ ऐसे पेय पदार्थों के सेवन करने के बाद जिसमें आयतन के हिसाब से 57.2% जल होता है, एक दुसरे के लिए जान न्योछावर करने की बात भी करते थे| परीक्षा के दौरान अपने 'पास' होने भर लिख लेने के बाद एकाध प्रश्न का उत्तर प्रश्न-पत्र पर लिख कर एक अनन्य मित्र दुसरे अनन्य मित्र को प्रदान करता था और दूसरा मित्र उसे पूर्ण भरोसे के साथ लिख भी लेता था| इसी श्रेणी के मेरे एक मित्र जब भी अपनी गर्ल फ्रेंड के साथ मिल कर हॉस्टल लौटते थे तो सारा वार्तालाप मुझ से शेयर करते थे, क्योंकि गर्ल्स हॉस्टल से लौटने के तुरत बाद इनके पेट के अन्दर हड़कंप मचने लगता था इन्हें ऐसा लगता था कि अगर इन्होने किसी से वहां की सारी बातें नहीं कहीं तो इनका पेट भड़ाम से फूट जाएगा| एक दिन इन्होंने बड़े अपनापन से झिड़कते हुए मुझ से पुछा कि मैं उनकी गर्ल फ्रेंड से बात क्यों नहीं करता| फिर उन्होंने बताया कि ये शिकायत उनकी गर्लफ्रेंड की ही है| मैंने भी उन्हें आश्वासन दिया कि अगली बार तुम्हें शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, मैं तो झिझक के मारे नहीं बात कर पा रहा था| इत्तफाक की बात! अगले ही दिन उनकी गर्लफ्रेंड मुझे बिष्टुपुर में दिखी, मैं उसकी तरफ लपका, वो मुझ से नजरें चुरा रही थी परन्तु मैंने आव देखा न ताव और हाल चाल पूछ बैठा| वह कुछ नहीं बोली, मुझे बड़ा गुस्सा आया, मुझे लगा कि मेरे मित्र ने मुझसे झूठ बोला था, मैंने एकाध बार और कोशिश की कि किसी तरह से बात को आगे बढ़ाऊँ, परन्तु सब व्यर्थ! केवल कुछ संक्षिप्त उत्तर मिले और इशारा स्पष्ट था कि मैं वहां से चलता बनूँ| हॉस्टल जाने के बाद मित्र को भला बुरा कहा, वे भी अचकचा गए| अगले दिन असली बात पता चली, दरअसल मैंने अनजाने में दोस्त की गर्लफ्रेंड से बात करने के लिए जो 'प्रश्न' और 'जगह' चुना था, दोनों ही बड़े संवेदनशील थेप्रश्न "और!  कैसा रहा?" हाल में हुए इम्तिहान के बारे में था,  उस समय वो सुलभ शौचालय से बाहर निकल रही थी| मुझे बहुत गुस्सा आया अपने ऊपर, पता नहीं क्यों लड़कियों से बात करते वक़्त मैं ऐसी मूर्खता कर जाता था|    
  
                                         जघन्य मित्र वे होते थे जो ऊपर से तो मित्रता दिखाते थे परन्तु अन्दर से घात लगाये बैठे रहते थे| इस मित्रता में मित्र की सहायता ऐसे करनी होती थी जिससे उसे सर्वाधिक नुकसान पहुंचे लेकिन यह साबित नहीं हो पाए कि ये मित्रता के कदम नहीं हैं| मसलन किसी छोटे मोटे मामले में अगर किसी को पुलिस ने अरेस्ट कर लिया तो दूसरा मित्र सहायता के लिए सबसे पहले अरेस्ट हुए स्टुडेंट की 'गर्लफ्रेंड' से ये खबर कॉलेज में 'प्रिंसिपल' को भेजता था, उसके बाद अरेस्ट हुए स्टुडेंट के 'पिताजी' को खबर करता था, और बाद में सफाई मांगने पर इसे मित्र की भलाई के लिए उठाया गया घबराहट भरा कदम साबित कर देता था| ऐसे ही जघन्य मित्रों में से एक सज्जन अपनी बाइक से फर्स्ट क्लास टी शर्ट और धूप का चश्मा पहने हुए कॉलेज के सामने से गुजर रहे थे कि किसी लोकल लड़के से उनकी कहा सुनी हो गयी| उन्होंने तत्काल उस लोकल लड़के को पीट दिया और हॉस्टल चले आये| हॉस्टल में इनके एक मित्र ने इनके वेशभूषा पर चुटकी ली, "क्या लग रहा है बे!! काश मेरे पास ऐसी बाइक होती|" बाइक वाले मित्र ने उन्हें तत्काल बाइक, चश्मा और टी शर्ट दे कर उसी दिशा में पठा दिया जिधर से वो काण्ड कर के लौटे थे| उसके बाद जो कुछ भी हुआ उसका परिणाम ये था कि हम लोगों में से फल फूल लेकर हॉस्पिटल पहुँचने वालों में सबसे पहले वो बाइक वाले सज्जन ही थे| उधर अस्पताल में पड़े मित्र को अपनी चोटों के दुःख से ज्यादा ख़ुशी इस बात की थी कि चश्मा और बाइक की दुर्गति हो गयी थी, टी शर्ट भी फट चुका था| बाइक अभी भी 'सुक्खन हट' पर पड़ी थी| 


                                             गोपाल हट से कुछ दुरी पर एक पेंड़ की सूखी, पर मोटी डाल आसमान की ओर हाथ उठाकर 'पनाह-जैसा' मांग रही थी, उसी के पास एक और चाय की दुकान हुआ करती थी जो 'सुक्खन-हट' के नाम से विख्यात थी| हट के संचालक और संचालिका एक ऐसे पति-पत्नी थे जिन्हें एक नजर देखने से ही आभास होता था कि इनमें से किसी एक का नाम सुक्खन होगा और था भी| इनके दो-तीन छोटे छोटे बच्चे हट के आस पास ही खेलते रहते थे, जो प्रथम दृष्टया ही कुपोषण के शिकार लगते थे| बचपन में कभी प्रोटीन की कमी से होने वाले रोग 'क्वाशरकोर' और 'मैरेस्मस' के बारे में पढ़ा था, यह हट विशेष रूप से कॉलेज के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिए बनी थी| कॉलेज स्टुडेंट बाकी हटों में चाय उपलब्ध नहीं होने पर ही वहां जाते थे| एक दिन शाम के धुंधलके में सुक्खन के दो लड़के हट और सूखे पेंड़ के बीच जंगली घास के अन्दर कुछ निजी कार्य करने गए| उन्हें वहां एक पोलीथिन में लिपटी हुई कोई चीज गिरी मिली, जब उन्होंने इसे खोला तो उसके अन्दर से एक 12 बोर का भोंडा सा देसी तमंचा मिला| दरअसल आज कल कॉलेज कैम्पस में पुलिस पेट्रोलिंग बढ़ गया था और शायद पुलिस की तलाशी के डर से किसी ने यह तमंचा यहाँ फ़ेंक दिया था| हाथ में तमंचा आते ही दोनों लड़के सकपका गए| उनके मन में आतंक था परन्तु उत्सुकता उन्हें मजबूर कर रही थी| बड़े भाई ने उसे कई बार उलट पुलट कर देखा, तमंचा चलाने वाली मुद्रा में एक बार हैंडल भी पकड़ा, तब तक छोटे वाले का धीरज जवाब देने लगा उसने भी हाथ बढ़ा कर इसे सहलाना शुरू किया| तभी तमंचे से एक गोली छूटी और पता नहीं किधर गयी|अचानक पेंड़ों से सैकड़ों चिड़ियाँ चीखती हुई निकलीं और चारों ओर उड़ चलीं| इन चिड़ियों में ज्यादातर कौवे थे| हर तरफ भय और आतंक छा गया| गोली की आवाज से लोग बहुत डर गए थे, जो गोली की आवाज नहीं सुन पाए थे वे कौवों की आवाज से डरे और जो कौवों की भी आवाज नहीं सुन पाए थे वो बाद में हुए सन्नाटे से डर कर अपने अपने लोकल गार्जियन के यहाँ चले गए| कॉलेज में लगातार तीन दिन तक 'टेंशन' का माहौल बना रहा| इस आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए पुलिस को भी बुला लिया गया| सभी फाईलम के लोग कई दिनों तक भुनभुनाते हुए एक दुसरे पर शक करते हुए घूमते रहे| बॉस गण सस्पेंशन के डर से ग्रेविटी मेन्टेन करने लगे थे| इस घटना का सबसे ज्यादा सदमा प्रिंसिपल साहब को लगा, क्योंकि आम तौर पर किसी इस प्रकार की घटना से पहले या बाद में उन्हें अपने खुफिया-तंत्र से सारी जानकारी मिल जाती थी, परन्तु इस बार उनका इंटेलिजेंस फेल हो चुका था| इस असुरक्षा से निपटने के लिए पहले प्रिंसिपल साहब ने शिक्षकों की मीटिंग बुलाई उसके बाद स्टुडेंट्स की मीटिंग बुलाई गयी| शिक्षकों से क्या बातें हुईं वो तो पता नहीं चला, परन्तु स्टुडेंट्स को शाकाहारी वाणी में याद दिलाया गया कि वे इस कॉलेज में पढ़ने आये हैं| स्टुडेंट्स भी इस बात से सहमत थे क्योंकि इस मीटिंग में भाग लेने वाले और कुछ कर भी नहीं सकते थे|                 



12 comments:

  1. सर 'चुकूमुकु' बैठ कर ..बाबाधाम वाला 'गमछी' लपेट कर ....बहत्तर घंटा लगातार 'फ्लश' ...इतना तो डिजिटल सिग्नल प्रोसेसिंग में नहीं पढ़े थे ..हम ...हा हा हा ..याद दिला दिए आप 'कॉलेज' ! मेरे बैच में एक दो थे ..जिनका घर से खर्चा नहीं आता था ..वो 'फ्लश' से ही कमाते थे ...हा हा ! दो तीन पांच को लेकर बहुत कन्फ्यूजन था !
    बहुत बढ़िया :))

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  2. Abe Casono culture hamare wakt dekha nahi

    Vishwas P Pitke

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  3. badhiya ...bahut badhiya ...keep writing

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  5. अनन्य एवं जघन्य का बहुत ही सही विवरण! शब्दों का ऐसा सुन्दर प्रयोग है की जघन्य भी अनन्य प्रतीत हो रहा है ! शनिवार को भोरे भोरे पढ़ कर अब आलू पराठा और ऑमलेट का नास्ता करने का मन कर रहा है ! बहुत सारे अनदेखे पहलू को पढने को मिल रहा है :) क्रमश: की इंतज़ार रहेगा!

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  6. "जघन्य मित्र वे होते थे जो ऊपर से तो मित्रता दिखाते थे परन्तु अन्दर से घात लगाये बैठे रहते थे| इस मित्रता में मित्र की सहायता ऐसे करनी होती थी जिससे उसे सर्वाधिक नुकसान पहुंचे लेकिन यह साबित नहीं हो पाए कि ये मित्रता के कदम नहीं हैं|" अरविन्द जी आपने तो जीवन का वो सत्य उजागर किया जिसे जानते तो सब हैं मगर स्वीकार कोई नहीं करता. आपका ये लेख इस तरह के अनान्य दृष्टान्तों से भर रोचक होने के साथ साथ गंभीर विचारों से परिपूर्ण भी है, सुन्दर लेखन के लिए एक बार फिर साधुवाद ....

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  7. Arbind, your writing skill and selection of words are fantastic! Would love to read more. Keep it on!

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  8. Very well writern sir... an lagta hai wapas college jake padhne ka!!! :) U make me nostalgic for college days every time i read ur blog.

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  9. hostel mein casino ka concept bahut nirala hai, jo jita woh sukhi na rah paya jo hara woh bhi, par aane wali zindgi mein himmat badhane ke liye bahut badiya mantra/ tantra raha hai, jai ho aishi amulya guno wali khan 52 patton ki vidhya ka. ye raat/ din tapsya main leen rahna aur haar mein bhi jeet ki asha ka jagaye rahti. Aur doston ki jazab vayakhya to aap kar hi chuke hain uska kya kahna sadhu...........sadhu.....sadhu.

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  10. sanjeev bedi

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  11. sir twenty nine ka game to hum aaj bhi khela krte hai..
    Final year ki training ka hamara prime subject hi yahi tha.. :)

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  12. अद्भुत शब्द प्रयोग ! इसकी निरन्तरता को बनाये रखिये ..

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